पल्लवि
रङ् गनायकं भावये
रङ् गनायकी समेतं श्री
अनपल्लवि
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अङ् गजतातं अनन्तं अतीतं
अजेन्द्राद्यमरनुतं सततं
उत्तुङ्गविहङ् गतुरङ् गं
कृ पापाङ् गंरमान्तरङ् गम्
चरणम्
प्रणवाकारदिव्यविमानं
प्रह्लादादिभक्ताभिमानं
गणपतिसमानविष्वक्सेनं
गजतुरगपदातिसेनम्
दिनमणिकुलभवराघवाराधनं
मामकविदेहमुक्तिसाधनं
मणिमयसदनं शशिवदनं
फणिपतिशयनं पद्मनयनम्
अगणितसगुणगणनतविभीषणं
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घन-तरकौस्तुभमणिविभूषणं
गुणिजनकृ तवेदपारायणं
गुरुगुहमुदितनारायणम्
यहां पर प्रह्लादादि का पराणों में आया अश लिया गया है और कविता में
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‘नायकी’ (जो कि राग का नाम भी है) इस शब्द का प्रयोग चतराई से कर दिया गया है ।
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‘अगणितसगणगणनतविभीषणम्’- इस स्थान पर अनप्रास अलंकार है ।
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मत्तुस्वामी दीक्षित ने रागों का भी बड़ा सन्दर चयन किया है जो कि उदाहरणों से स्पष्ट है।
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मत्तुस्वामी दीक्षित का जीवन भक्तिमय था, उनकी रचनाओ ं में विद्या का समावेश था, संगीत का
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रस था तो भक्ति की पराकाष्ठा थी। अन्य समकालीन कवियों और संगीतकारों से अलग दीक्षितजी
ने प्रायः सभी देवताओ ं के लिये कृ तियां लिखीं । देवी के विभिन्न रूपों के लिये विविध रागों में
इनकी रचनायें हैं ।
इक्कीस अक्टूबर अट्ठारह सौ पैंतीस इसवी को नरक चतर्दशी के दिन दीक्षितजी अपने
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शिष्यों से