The Shoreline'14 April, 2014 | Page 80

पल्लवि रङ् गनायकं भावये रङ् गनायकी समेतं श्री अनपल्लवि ु अङ् गजतातं अनन्तं अतीतं अजेन्द्राद्यमरनुतं सततं उत्तुङ्गविहङ् गतुरङ् गं कृ पापाङ् गंरमान्तरङ् गम् चरणम् प्रणवाकारदिव्यविमानं प्रह्लादादिभक्ताभिमानं गणपतिसमानविष्वक्सेनं गजतुरगपदातिसेनम् दिनमणिकुलभवराघवाराधनं मामकविदेहमुक्तिसाधनं मणिमयसदनं शशिवदनं फणिपतिशयनं पद्मनयनम् अगणितसगुणगणनतविभीषणं ु घन-तरकौस्तुभमणिविभूषणं गुणिजनकृ तवेदपारायणं गुरुगुहमुदितनारायणम् यहां पर प्रह्लादादि का पराणों में आया अश लिया गया है और कविता में ु ं ‘नायकी’ (जो कि राग का नाम भी है) इस शब्द का प्रयोग चतराई से कर दिया गया है । ु ‘अगणितसगणगणनतविभीषणम्’- इस स्थान पर अनप्रास अलंकार है । ु ु ु मत्तुस्वामी दीक्षित ने रागों का भी बड़ा सन्दर चयन किया है जो कि उदाहरणों से स्पष्ट है। ु ु मत्तुस्वामी दीक्षित का जीवन भक्तिमय था, उनकी रचनाओ ं में विद्या का समावेश था, संगीत का ु रस था तो भक्ति की पराकाष्ठा थी। अन्य समकालीन कवियों और संगीतकारों से अलग दीक्षितजी ने प्रायः सभी देवताओ ं के लिये कृ तियां लिखीं । देवी के विभिन्न रूपों के लिये विविध रागों में इनकी रचनायें हैं । इक्कीस अक्टूबर अट्ठारह सौ पैंतीस इसवी को नरक चतर्दशी के दिन दीक्षितजी अपने ु शिष्यों से