Sept 2025_DA | Page 37

अस बरदाना ॥
(' एवमसतु '( ऐसा ही हो) कहकर रघुवंश के स्ामी परम सुख दरेनरे्ालरे वचन बोलरे- हरे काक! सुन, तू स्भाव सरे ही बुद्धिमान है । ऐसा वरदान कैसरे न मांगता?)
सब सुख खानि भगति तैं मागी । नहिं जग कोउ तोहि सम िड़भागी ॥
जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं । जरे जप जोग अनल तन दहहीं ॥
( तूनरे सब सुखों की खान भक्त माँग ली, जगत में तरेररे समान िड़भागी कोई नहीं है । ्रे मुनि जो जप और योग की अधनि सरे शरीर जलातरे रहतरे हैं, करोड़ों यत् करके भी जिसको( जिस भक्त को) नहीं पातरे ।)
रीझरेउँ दरेधख तोरि चतुराई । मागरेहु भगति मोहि अति भाई ॥
सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें । सब सुभ गुन
बसिहहिं उर तोरें ॥
( वही भक्त तूनरे माँगी । तरेरी चतुराई दरेखकर मैं रीझ गया । यह चतुराई मुझरे बहुत ही अचछी लगी । हरे पक्षी! सुन, मरेरी कृपा सरे अब समसत शुभ गुण तरेररे हृदय में बसेंगरे ।)
भगति गयान बिगयान बिरागा । जोग चररत् रहसय बिभागा ॥
जानब तैं सबही कर भरेदा । मम प्रसाद नहिं साधन खरेदा ॥
( भक्त, ज्ान, विज्ान, वैरागय, योग, मरेरी लीलाएं और उनके रहसय तथिा विभाग- इन सबके भरेद को तू मरेरी कृपा सरे ही जान जाएगा । तुझरे साधन का कष्ट नहीं होगा ।)
धयान दें, मानस में यह अनोखा भ्त है जिसरे ऐसा वरदान मिल रहा है कि उसरे साधन का कष्ट नहीं होगा । यह दरअसल तुलसी की निर्मल दृष्टि है जो भुशुणडी प्रकरण के माधयम सरे भक्त
की स््णथिा एक नई तस्ीर हमाररे सामनरे रखती है ।
ऐसरे में आशचय्ण होता है कि लोग- ' ढोल गँवार शूद्र पशु नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी ।' जैसी एक लाइन तो प्रगतिशील जन चट सरे दरेख लरेतरे हैं किंतु पूररे उत्रकांड में काकभुशुंडि को नहीं दरेख पातरे जिसरे तुलसी राम भक्त का सिरमौर बनातरे हैं । इन्हीं एक-दो लाइनों के आधार पर आज तक मानस को दलित विरोधी ग्रंथ सिद्ध किया जाता रहा है, जबकि भक्त की धुरी मानस में काकभुशुंडि के हाथिों दरे दी गई है । अतः विनय है कि मानस को समग्ता में दरेखें और ' काकभुशुंडि-प्रसंगों ' को पाठ्यरिमों में शामिल करें तथिा उसके आधार पर मानस की दलित चिंता पर फिर सरे विचार-विनिमय करें ।
( साभार) flracj 2025 37