Sept 2025_DA | Page 36

अधययन

एवं जनश्रुतियों पर आधरित है । विलसन के इस प्रयत् में सबसरे महत््पूर्ण तथय यह है कि एक विदरेशी विद्ान नरे इस क्षेत्र में रुचि दिखाई है । इसमें आलोचनातमक विश्लेषण की तलाश करनरे की तुलना में इसरे एक प्रस्थान बिंदु के रूप में दरेखना चाहिए । जहां सरे तुलसी साहितय पर विश्लेषणातमक अधययन का रिम शुरू होता है । इसका प्रमाण यह है कि, विलसन के बाद के कई विद्ानों नरे तुलसी पर लिखतरे हुए विलसन द्ारा प्रसतुत विवरणों का प्रयोग किया है ।
तुलसी को धर्म और अधयातम के खातरे में डालनरे की यह प्रवृधत् दरअसल हिंदी के मधयकालीन तरेजस्ी भक्त-कावय के केंद्र पर अंग्रेजों सबसरे सश्त हमला थिा, जिसका असर भविष्य पर भी पड़ना थिा, और वह बड़ी निर्ममता सरे पड़ा भी । जैसरे हिंदू-मुससलम एकता को, वैसरे ही तुलसी की समन्वयातमक चरेतना को भी, अंग्रेजों नरे दो हिससों में बांट दिया । तो, यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें मानस की प्रगतिशील वयाखयाओं को छुपाया गया । दलित चरेतना को पदजे में डाला गया ताकि दरेश को विभाजित रखरे रहा जाए और शासन किया जा सके । जबकि काकभुशुसणड प्रकरण का गंभीर अधययन करनरे के बाद मानस का एक अलग ही चरेहरा सामनरे आता है ।
काकभुशुसणड, तुलसी के साथि-साथि शिव एवं स्यं राम द्ारा भी समधथि्णत, राम भक्त के प्रखर प्र््ता हैं- ' मति अकुंठ हरि भगति अखंडा ' राम भक्त का सामाजिक-सार, तुलसी एवं शिव के मत में, केवल काकभुशुंडि ही जानतरे हैं । इसीलिए विष्णु के वाहक गरुण, मोहवश, सशंकित, जब शिव के पास जातरे हैं, तो शिव रामभक्त के मर्म को समझनरे हरेतु उन्हें काकभुशुंडि के पास ही भरेजतरे हैं । काकभुशुंडि और गरुण का यह संवाद ही मानस का असली दर्शन है जो अधद्तीय है । नारद और शांडिलय सरे अधिक िरेहतर और लौकिक, भक्त की अवधारणा काकभुशुंडि उत्रकांड में रखतरे हैं । शिव तो कथिा सुनाकर पार्वती का मोह भर हरतरे हैं पर मानस की धरती पर राम कथिा और भक्त के असली मम्णज् भुशुंडि ही हैं ।
काकभुभुशुंडि की जीवन दासतान अभिशपत है । किसी जन्म में वह शूद्र कुल में अवध में जत्मरे । शिव की परम भक्त की । उसके अलावा हर दरे्ता की निंदा की-
' शिव सरे्क मन रिम अरु बानी । आन दरे् निंदक अभिमानी ।'
यानी अवध में रहतरे हुए राम सरे विरोध! गुरु समझातरे रहरे किंतु यह अभिमान इतना िढ़ा कि- ' हरिजन धद्ज दरेखरे जरउँ करउँ विष्णु कर द्रोह ।' पर, गुरु अपमान एवं विष्णु द्रोह का फल उन्हें चखना पड़ा । स्यं शिव उन्हें भयंकर शाप दरेतरे हैं- ' अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा ' हालांकि काकभुशुंडि द्ारा विनती करनरे पर वह द्रवित भी होतरे हैं तथिा अखंड राम भक्त का वरदान भी दरेतरे हैं- ' अप्रतिहत गति होइहि तोरी '। भक्त की अखंड पिपासा में फिर शूद्र और ब्ाह्मण के रूप में अभिशपत, अनरेक जन्मों में भटकनरे के बाद दुबारा अवध में जन्म लरेनरे पर काकभुशुंडि को प्रबोध होता है तथिा राम भक्त दृढ़ होती है- ' रघुपति जस गावत फिरहुँ छन छन नव अनुराग ।' इस प्रकार एक शूद्र अपनी दृढ़ता सरे राम भक्त का स्वोच्च अधिकारी बनता है । पूररे उत्रकांड में ज्ान-भक्त के आधिकारिक निर्णायक यही शूद्र-ऋषि काकभुशुंडि हैं । यही भुशुंडि राम को ' गरीब निवाजरे ' घोषित करतरे हैं ।
पूररे मानस में भुशुंडी की ज्ान-भक्त तितिक्षा सबसरे लोमहर्षक है । एक संशयाकुल मन सरे वह राम के रहसय के पीछे भागतरे हैं । भ्त- भगवान् की यह कशमकश उत्रकाणड में अधद्तीय एवं पूरा पढनरे योगय है-
जौं प्रभु होइ प्रसन् बर दरेहू । मो पर करहु कृपा अरु नरेहू ॥
मन भावत बर मागउँ स्ामी । तुमह उदार उर अंतरजामी ॥
( हरे प्रभो! यदि आप प्रसन् होकर मुझरे वर दरेतरे हैं और मुझ पर कृपा और स्नेह करतरे हैं, तो हरे स्ामी! मैं अपना मन-भाया वर मांगता हूं । आप उदार हैं और हृदय के भीतर की जाननरे्ालरे हैं ।)
अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव ।
जरेधह खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव ॥ 84( क)॥
( आपकी जिस अविरल( प्रगाढ़) एवं विशुद्ध( अनन्य निष्काम) भक्त को श्रुति और पुराण गातरे हैं, जिसरे योगीश्र मुनि खोजतरे हैं और प्रभु की कृपा सरे कोई विरला ही जिसरे पाता है ॥)
भगत कलपतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुखधाम ।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु दरेहु दया करि राम ॥ 84( ख)॥
( हरे भ्तों के( मन-इसचछत फल दरेनरे वालरे) कलप्ृक्ष! हरे शरणागत के हितकारी! हरे कृपासागर! हरे सुखधान राम! दया करके मुझरे अपनी वही भक्त दीजिए ॥ 84( ख)॥)
एवमसतु कहि रघुकुलनायक । बोलरे बचन परम सुखदायक ॥
सुनु बायस तैं सहज सयाना । काहरे न मागसि
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