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बल पर ्यह स्ान प्ा्त लक्या है । शिक्ा दलित समाज की बुलन्याद को मज़बूत करती है । दलित साहित्यकारों ने ्यह प्ेिणा भी बाबा साहब से ली है । डा . आंबेडकर दलितों को लशलक्त करनेके सभी प्रयासों के लिए प्लतबद्ध से सरकारी , ग़ैर- सरकारी संस्ाओं के साथ अपने व्यक्तिगत प्रयासों द्ािा वह उन्हें लशलक्त करना चिाहते थे । शिक्ा द्ािा ही दलितों और न्सरि्यों में अपने अधिकार और अस्मिता को समझने की चिेतना आ्यी । शिक्ा द्ािा ही स्वयं के अधिकारों के लिए संघर्ष के लिए एकरि हुए ।
दलित महिला लेखन में कहानीकारों की कमी है । अधिकतर दलित महिलाएं कविता विधा में लेखन कर रही हैं । वह इस दिशा में व्यापक सति पर प्रयास करेंगी तो लन्चि्य ही दलित समाज की न्सरि्यों की पीड़ा ्य्ार्थ रूप में सामने आ सकेगी । दलित न्सरि्यों को आंदोलन से जोड़े बिना न साहित्य आगे बढ़ सकता है नहीं समाज । उनकी उपेक्ा समपूण्य दलित समाज की उपेक्ा है । भारती्य दलित कविता समसत दलितों , पूरब से पन््चिम , उत्ि से दलक्ण की पुकार है , जिसमें दलितों के शोषण , ग़रीबी और जहालत के साथ ही परिवर्तन की परिन्स्लत्यों को वाणी दी ग्यी है ।
आधुनिक दलित कविता की धरा मराठी से प्सफुलटत होती हुई गुजराती , पंजाबी , उलड्या , कन्नड़ तथा हिंदी तक व्या्त होती जा रही है । दलितों की स्थिति भारत के प्त्येक भू-भाग में एक जैसी है , ज़ाहिर है कि उनका सवि भी एक जैसा होगा चिाहे वे द्या पवार हों , ्या पंजाबी के गुरुदास राम ‘ आलम ’ हों ्या फिर उलड्या के लवलचिरिाचिंद ना्यक हों ्या गुजराती के मंगल परमार ्या हिंदी के ओमप्काश वालमीलक हों । समसत भारती्य दलित आगे बढ़ रहे हैं । सलद्यों से प्रचलित परमपिा और लवचिारधारा का खुलकर विरोध करना ही दलित कविता का उद्े््य है । ्ये कविताएँ दलितों के पीड़ा और उनके साथ हुए अत््या्य का दसतावेज़ हैं । वह त््या्य जो इन्हें सलद्यों से नहीं मिला , मानव होने के बावजूद भी मानव के अधिकारों से इन्हें दूर रखा ग्या । ्यही भावबोध की क्मता और कटु अनुभूलत्यों
की प्माणिकता ही दलितों को त््या्य दिलाएगी । इतिहास में जिसकी सूरत दिखाई नहीं देती , उसी सूरत की खोज करती हैं ्ये कविताएँ । ्ये अस्मिता की पहचिान का दसतावेज़ हैं और प्ासंगिक भी हैं । भारत महाशक्ति तभी बन सकता जब भारती्य समाज का ्यह बड़ा तबक़ा जिसे हालश्ये पर रखा ग्या है , उसे मुख्यधारा में समावेशित लक्या जाएगा और वो भी उसके पूरे अधिकारों के साथ
दलित महिला लेखन में कहानीकारों की कमी है । अधिकतर दलित महिलाएं कविता विधा में लेखन कर रही हैं । वह इस दिशा में वयापक सतर पर प्यास करेंगी तो निशचय ही दलित समाज की ससत्यों की पीड़ा यथार्थ रूप में सामने आ सकेगी । दलित ससत्यों को आंदोलन से जोड़े बिना न साहितय आगे बढ़ सकता है नहीं समाज । उनकी उपेक्षा समपूण्श दलित समाज की उपेक्षा है । भारतीय दलित कविता समसत दलितों , पूरब से पसशचम , उतिर से दक्षिण की पुकार है , जिसमें दलितों के शोषण , ग़रीबी और जहालत के साथ ही परिवर्तन की परिसस्लतयों को वाणी दी गयी है ।
अपनी विशिष्ट भाषाई दक्ता के साथ दलित कविता अपने आप में सशकत साहित्य है जो जनमानस के मस्तिष्क के तार को झंकृत करता है और सोचिने पर विवश करता है और ्यही उसकी सफलता है और ्यही भारती्य दलित कविता की प्ासंगिकता भी है ।
भारती्य समाज और साहित्य का गहरा समबत्ि हैं और दोनों एक दूसरे के पूरक है ।
साहित्य समाज आतमा साहित्य है । साहित्य मानव मस्तिष्क से उतपन्न होता है और मस्तिष्क वही ग्हण करता है जो समाज से उसे प्ा्त होता है । साहित्य मनुष््य को मनुष््यता प्दान करता है । मनुष््य न तो समाज से अलग हो सकता है और न साहित्य से । मनुष््य का पालन- पोषण , शिक्ा-दीक्ा तथा जीवन निर्वहन भी समाज में ही होता है । व्यक्ति सामाजिक प्ाणी बनकर अनेक अनुभव ग्हण करता है , जब वह इन अनुभवों को शबदों के माध्यम से व्यकत करता है तो साहित्य का रूप बन जाता है । शबदों की ्यही अभिव्यक्ति आदमी को श्ेष्ठ एवं साहित्यकार बना देती है । साहित्य के बिना राष्ट्र की सभ्यता और संसकृलत लनजटीव है । साहित्यकार का कर्म ही है कि वह ऐसे साहित्य का सृजन करे जो राष्ट्री्य एकता , मानवी्य समानता , लव्व-बन्धुतव के सदभाव के साथ हालश्ये के आदमी के जीवन को ऊपर उठाने में उसकी मदद करे । साहित्य का आधार ही जीवन है । अपने ही देश में अनजानेपन का दंश झेलता दलित एक लमबे सम्य से अपनी अस्मिता की तलाश में भटक रहा है । कई पड़ाव इस दलौिान पार लक्ये हैं परन्तु मंज़िल अभी कोसों दूर है । परन्तु वह लव्वास से पूर्ण है कि वह अपने अस्तितव की रक्ा कई संघषथों के बावजूद भी करेगा और उसे मंज़िल मिलेगी इसके प्लत आशान्त्वत भी है ।
समग्ता में देखें तो हिन्दी में दलित साहित्य का आना उसके लिए सुखद ही रहा क्योंकि ्यह सचि है कि हिन्दी साहित्य से जुड़ते ही दलित साहित्य व्यापक सति पर चिलचि्यत हुआ जिसकी पहुंचि बड़ी है । दलित साहित्यकार भाषा में चिमतकाि दिखाने के लिए नहीं लिखता न ही किसी को ख़ुश करने के लिए , बल्कि वह लिखता है अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए । पाठक इसीलिए उससे जुड़ भी जाता है क्योंकि उसे दलित विष्यक साहित्य की संवेदना झूठी नहीं लगती है । उसमें छुपे सत्य को वह महसूसता है और उसे आतमसात करता है । आज दलित विमर्श लव्व सति का मुद्ा है तो उसमें सिर्फ़ दलितों की मेहनत और दृन्ष्ट है । �
48 flracj 2024