भी है , जो आकोश के रूप में दिखाई देता है । क्योंकि दलित कविता की निजता जब सामाजिकता में परिवर्तित होती है , तो उसके आंतरिक और बाह्य द्ंद् उसे संन््लष्टता प्दान करते हैं । ्यहां ्यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगा कि हिन्दी आलोचिक अपने इर्द-गिर्द िचिे – बसे संसकारिक मापदंडो , जिसे वह
सलौत्द ्यबोध कहता है , से इतर देखने का अभ्यसत नहीं है । इसी लिए उसे दलित कविता कभी अपरिपकव लगती है , तो कभी सपाट ब्यानी , तो कभी बचिकानी भी । दलित कविता की अंत : धारा और उसकी वसतुलनष्ठता को पकड़ने की वह कोशिश नहीं करना चिाहता है । ्यह का ्य उसे उबाऊ लगता है । इसी लिए वह दलित कविता से टकराने के बजाए बचिकर निकल जाने में ही अपनी पूरी शक्ति लगा देता है ।
दलित चिेतना दलित विष्यक कविता को एक अलग और विशिष्ट आ्याम देती है । ्यह चिेतना उसे डा . अमबेडकर जीवन दर्शन और जीवन संघर्ष से मिली है । ्यह एक मानसिक प्लक्या है जो इर्द-गिर्द फैले सामाजिक , धार्मिक , राजनीतिक , शैक्लणक , आर्थिक छदमों से सावधान करती है । ्यह चिेतना संघर्षरत
दलित जीवन के उस अंधेरे से बाहर आने की चिेतना है जो हजारों साल से दलित को मनुष््य होने से दूर करते रहने में ही अपनी श्ेष्ठता मानता रहा है । इसी लिए एक दलित कवि की चिेतना और एक तथाकथित उच्चवर्णीय कवि की चिेतना में गहरा अंतर दिखाई देता है । सामाजिक जीवन में घटित होने वाली प्त्येक घटना से मनुष््य प्भावित होता है । वहीं से उसके संसकाि जन्म लेते हैं और उसकी वैचिारिकता , दार्शनिकता , सामाजिकता , सालहन्त्यक समझ प्भावित होती हैं । कोई भी व्यक्ति अपने परिवेश से प्भावित हुए बिना नहीं रह सकता है । इसी लिए कवि की चिेतना सामाजिक चिेतना का ही प्लतलबमब बन कर उभरती है । जो उसकी कविताओं में मूर्त रूप में प्कट होती है । इसी लिए दलित जीवन पर लिखी ग्यी िचिनाएं जब एक दलित लिखता है और एक गैर दलित लिखता है तो दोनों की सामाजिक चिेतना की भिन्नता साफ – साफ दिखाई देती है । जिसे अनदेखा करना हिन्दी आलोचिक की विवशता है । ्यह जरूरी हो जाता है कि दलित कविता को पढते सम्य दलित- जीवन की उन विसंगलत्यों , प्ताडनाओं , भेदभाव , असमानताओं को ध्यान में रखा जा्ये , तभी दलित विष्यक कविता के साथ साधारणीकरण की स्थिति उतपन्न होगी ।
हिन्दी के कुछ विद्ानों , आलोचिकों को लगता है कि दलित का जीवन बदल चिुका है । लेकिन दलित कवि और साहित्यकार अभी भी अतीत का रोना रो रहे हैं और उनकी अभिव्यक्ति आज भी वहीं फुले , अमबेडकर , पेरि्यार के सम्य में ही अटकी हुई है । ्यह एक अजीब तरह का आरोप है । आज भी दलित उसी पुरातन पंथी जीवन को भोग रहा है जो अतीत ने उसे लद्या था । हां , चित्द लोग जो गांव से निकल शहरों और महानगरों में आ्ये , कुछ अचछी नलौकरि्यां पाकर उस स्थिति से बाहर निकल आ्ये हैं , शा्यद उन्हीं चित्द लोगों को देख कर विद्ानों ने अपनी रा्य बनाली है कि दलितों के जीवन में अंतर आ चिुका है । लेकिन वासतलवकता इससे कोसों दूर है । महानगरों में रहने वालों की
वासतलवक स्थिति वैसी नहीं है , जैसी दिखाई दे रही है । ्यलद न्स्लत्यां बदली होती तो दलितों को अपनी पहचिान छिपा कर महानगरों की आवासी्य कालोलन्यों में क्यों रहना पडता । वे भी दूसरों की तरह सवालभमान से जीते , लेकिन ऎसा नहीं हुआ । समाज उन्हें मात््यता देने के लिए आज भी तै्यार नहीं है ।
शहरों और महानगरों से बाहर ग्ामीण क्ेरिों में दिन रात खेतों , खलिहानों , कारखानों में पसीना बहाता दलित जब थका-मांदा घर ललौटता है , तो उसके पास जो है वह इतना कम है कि वह अपने पास क्या जोड़े और क्या घटा्ये , कि स्थिति में होता है । ऊपर से सामाजिक विद्ेष उसकी रही सही उममीदों पर पानी फेर देता है । इसी लिए अभावग्सत जीवन से उपजी विकलताओं , जिजिविषा्यें दलित कवि की चिेतना को संघर्ष के लिए उतप्ेरित करती हैं , जो उसकी कविता का स्थायी भाव बनकर उभरता है । और दलित विष्यक कविता में दलित जीवन और उसकी विवशता्यें बार-बार आती हैं । इसी लिए कवि का ‘ मैं ’ ‘ हम ’ बनकर अपनी व्यक्तिगत , निजी चिेतना को सामाजिक चिेतना में बदल देता है । साथ ही मानवी्य मूल्यों को गहन अनुभूति के साथ शबदों में ढालने की प्वृलत् भी उसकी पहचिान बनती है ।
दलित विष्यक कविता को मध्यकालीन संतों से जोड़कर देखने की भी प्वृति इधर दिखाई देती है । जिस पर गंभीर और तटस् विवेचिना की आवश्यकता है । संत काव्य की अध्यात्मिकता , सामाजिकता और उनके जीवन मूल्यों की प्ासंगिकता के साथ डलॉ . अमबेडकर के मुक्ति – संघर्ष से उपजे साहित्य की अंत : चिेतना का लव्लेषण करते हुए ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचिा जा सकता है । जो समकालीन सामाजिक संदभवो के लिए जरूरी लगता है , जिस पर गहन लचिंतन की आवश्यकता है । दलित कविता में आकोश , संघर्ष , नकार , विद्रोह , अतीत की स्ालपत मात््यताओं से है । वर्तमान के छद्म से है , लेकिन मुख्य लक््य जीवन में घृणा की जगह प्ेम , समता , बन्धुता , मानवी्य मूल्यों का संचिार करना ही दलित कविता का लक््य है । �
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