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अस्मिता की संस्कृ ति में दलित विषयक कविता
समकालीन कविता ने अपना एक विशिष्ट मुकाम हासिल लक्या है जिसे देख कर ्यह कहा जा सकता है कि भारती्य परिदृश्य पर दलित कविता ने अपनी उपस्थिति दर्ज करके सामाजिक संवेदना में बदलाव की प्लक्या तेज की है । दलित कविता के इस सवरूप ने लनन््चित ही भारती्य मानस की सोचि को बदला है । दलित कविता आनन्द ्या रसासवादन की चिीज नहीं है । बल्कि कविता के माध्यम से मानवी्य पक्ों को उजागर करते हुए मनुष््यता के सरोकारों और मनुष््यता के पक् में खड़ा होना है । मनुष््य और प्कृति , भाषा और संवेदना का गहरा रि्ता है , जिसे दलित कविता ने अपने गहरे सरोकारों के साथ जोडा है ।
दलित विष्यक कविता ने अपनी एक विकास -्यारिा त्य की है , जिसमें वैचिारिकता , जीवन- संघर्ष , विद्रोह , आकोश , नकार , प्ेम , सांसकृलतक छदम , राजनीतिक प्पंचि , वर्ण- विद्ेष , जाति के सवाल , सालहन्त्यक छल आदि विष्य बार-बार दसतक देते हैं , जो दलित कविता की विकास -्यारिा के विभिन्न पड़ाव से होकर गुजरते हैं । दलित कवि के मूल में मनुष््य होता है , तो वह उतपीडन और असमानता के प्लत अपना विरोध दर्ज करेगा ही । जिसमें आकोश आना सवाभाविक परिणिति है । जो दलित कवि की अभिव्यक्ति को ्य्ार्थ के निकट ले जाती है । उसके अपने अंतर्विरोध भी हैं , जो कविता में छिपते नहीं हैं , बल्कि सवाभाविक रूप से अभिव्यकत होते हैं । दलित कविता का जो प्भाव और उसकी उतपलत् है , जो आज भी जीवन पर लगातार आकमण कर रही है । इसी लिए कहा जाता है कि दलित कविता मानवी्य मूल्यों और मनुष््य की अस्मिता के साथ खडी है ।
जिस विषमतामूलक समाज में एक दलित संघर्षरत हैं , वहां मनुष््य की मनुष््यता की बात करना अकलपनी्य लगता है । इसी लिए सामाजिकता में समताभाव को मानवी्य पक् में परिवर्तित करना दलित कविता की आंतरिक अनुभूति है , जिसे अभिव्यकत करने में गहन वेदना से गुजरना पडता है । भारती्य जीवन का सांसकृलतक पक् दलित को उसके भीतर हीनता बोध पैदा करते रहने में ही अपना श्ेष्ठतव पाता है । लेकिन एक दलित के लिए ्यह श्ेष्ठतव दासता और गुलामी का प्तीक है । जिसके लिए हर पल दलित को अपने ‘ सव ’ की ही नहीं समूचिे दलित समाज की पीड़ादा्यक न्स्लत्यों से गुजरना पड़ता है ।
हिन्दी आलोचिक कविता को जिस रूप में भी ग्हण करें और सालहन्त्यक मापदंडों से उसकी व्याख्या करें , लेकिन दलित जीवन की रिासद न्स्लत्यां उसे संसपश्य लक्ये बगैर ही निकल जाती हैं । इसी लिए वह आलोचिक अपनी बलौलद्धकता के छदम में दलित कविता पर कुछ ऎसे आरोपण करता है कि दलित कविता में भटकाव की गुंजाईश बनने की न्स्लत्यां उतपन्न होने की संभावना्यें दिखाई देने लगती हैं । इसी लिए दलित कविता को डा . अमबेडकर के जीवन- दर्शन , अतीत की भ्यावहता और बुद्ध के मानवी्य दर्शन को हर पल सामने रखने की जरूरत पडती है , जिसके बगैर दलित कविता का सामाजिक पक् कमजोर पडने लगता है ।
समाज में िचिा-बसा ‘ विद्ेष ’ रूप बदल – बदल कर झांसा देता है । दलित कवि के सामने ऎसी भ्यावह न्स्लत्यां निर्मित करने के अनेक प्माण हर रोज सामने आते हैं , जिनके बीचि अपना रासता ढटूंढना आसान नहीं होता है । सभ्यता
, संसकृलत के घिनलौने सड्यंरि लुभावने शबदों से भरमाने का काम करते हैं । जहां नैतिकता , अनैतिकता और जीवन मूल्यों के बीचि फर्क करना मुन््कल हो जाता है , फिर भी नाउममीदी नहीं है । एक दलित कवि की ्यही कोशिश होती है कि इस भ्यावह रिासदी से मनुष््य सवतंरि होकर प्ेम और भाईचिारे की ओर कदम बढा्ये , जिसका अभाव हजारों साल से साहित्य और समाज में दिखाई देता रहा है ।
दलित कविता निजता से ज्यादा सामाजिकता को महत्ा देती है । इसी लिए दलित कविता का समूचिा संघर्ष सामाजिकता के लिए है । दलित कविता का सामाजिक ्य्ार्थ , जीवन संघर्ष और उसकी चिेतना की आंचि पर तपकर पारमपरिक मात््यताओं के विरुद्ध विद्रोह और नकार के रूप में अभिव्यकत होता है । ्यही उसका केत्द्री्य भाव
44 flracj 2024