Sept 2024_DA | Page 42

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डा . आंबेडकर ने हिन्दू समाज में प्रचलित असपृ््यता को अत््या्यपूर्वक मानते हुए प्बल विरोध लक्या । उनके अनुसार रिाह्मणों और शूद्र शासकों में अत्तद््यत्द् के कारण शूद्रों का जन्म हुआ जबकि प्ािमभ में रिाह्मण , क्लरि्य और वैश्य तीन वर्ण ही हुआ करते थे । शनैःशनैः रिाह्मणवाद का समाज में वचि्यसव स्ालपत हो ग्या तथा समाज में उनके द्ािा प्लतपादित लन्यमों को मानना आवश्यक माना ग्या । इन लन्यमों को न मानने वालों को हे्य माना ग्या । इन्होंने विभिन्न ऐतिहासिक उदाहरणों से ्यह सपष्ट करने का प्रयास लक्या कि असपृ््यता के बने रहने के पीछे कोई तार्किक , सामाजिक अथवा व्यावसाल्यक आधार नहीं है । अत : डा . आंबेडकर ने इस व्यवस्ा का जोरदार शबदों में खंडन लक्या । उनका दृन्ष्टकोण था कि ्यलद हिन्दू समाज का उत्ान करना है तो असपृ््यता का जड़ से निराकरण आवश्यक है ।
डा . आंबेडकर ने असपृ््यता के निराकरण के लिए केवल सैद्धांतिक दृन्ष्टकोण ही प्सतुत नहीं लक्या अपितु उन्होंने अपने विभिन्न आन्दोलनों व कार्यों से लोगों में चिेतना जागत करने एवं इसके निराकरण के लिए विभिन्न सुझाव भी प्ेरित किए । उन्होंने असपृ््यता निराकरण के लिए सामाजिक , राजनीतिक , आर्थिक , नैतिक , शैक्लणक आदि सतिों पर िचिनातमक का ्यकम तथा संगठित अलभ्यान का आग्ह लक्या ।
डा . आंबेडकर हिन्दू समाज तथा हिन्दू धर्म की उन आधारभूत मात््यताओं के विरूद्ध थे , जिनके कारण असपृ््यता जैसी संकीर्णता का जन्म होता है । उनका मानना था कि हिन्दू समाज में सवतंरिता , समानता तथा त््या्य पर आधारित व्यवस्ा स्ालपत करने के लिए कठोर लन्यमों में संशोधन आवश्यक है । उन्होंने इसके लिए धार्मिक कार्यों के लिए रिाह्मणों के एकाधिकार को समा्त करने का आग्ह लक्या । उनके अनुसार उन शासरिों को अधिकारिक नहीं माना जाना चिाहिए जो सामाजिक अत््या्य का समर्थन करते है ।
डा . आंबेडकर का मानना था कि हिन्दू समाज
के उत्ान के लिए जाती्य बंधन समा्त लक्या जाना आवश्यक है । उनके मत में इसके लिए ्यह आवश्यक है कि समाज के विभिन्न जालत्यों के लोगों के मध्य अन्तर्जाती्य विवाह होने लगेगा तो जाति व्यवस्ा का बंधन सवत : शिथिल होने लगेगा , क्योंकि विभिन्न जालत्यों के मध्य रकत के मिलने से अपनतव की भावना पैदा होगी । उन्होंने स्वयं अन्तर्जाती्य विवाहों तथा सहभोजों को प्ोतसालहत लक्या । जब कभी इस प्कार के अवसर उन्हें मिलते तो वह उनमें अवश्य ही सम्मिलित होते थे ।
डा . आंबेडकर का लव्वास था कि दलितों के उत्ान में केवल उच्च वणवो की सहानुभूति और सद्‌भावना ही पर्याप्त नहीं है । उनका मत था कि दलितों का तो वासतव में तब उत्ान होगा जबकि वह स्वयं सलक्य तथा जागृत होंगे । इसलिए उन्होंने घोषणा की कि लशलक्त बनो , आन्दोलन चिलाओ और संगठित रहो । दलित वर्ग की शिक्ा के बारे में डा . आंबेडकर का मत था कि दलितों के अत्याचिार तथा उतपीडन सहन करने तथा वर्तमान परिन्स्लत्यों को सन्तोषपूर्ण मानकर सवीकार करने की प्वृति का अन्त करने के लिए उनमें शिक्ा का प्सार आवश्यक है । शिक्ा के माध्यम से ही उन्हें इस बात का आभास होगा कि लव्व कितना प्गतिशील है तथा वह कितने पिछड़े हुए है । उनका मानना था कि दलितों को अत््या्य , अपमान तथा दबाव को सहन करने के लिए मजबूर लक्या जाता है । वह इस बात से दुखी थे कि दलित इस प्कार की परिन्स्लत्यों को बिना कुछ कहे सवीकार कर लेते हैं । इन परिन्स्लत्यों को समा्त करने के लिए डा . आंबेडकर दलितों में शिक्ा के प्सार को बहुत महतवपूर्ण मानते थे ।
डा . आंबेडकर का मानना था दलित वर्ग को अपने हितों की रक्ा के लिए विधा्यी कार्यों को अपने पक् में प्भावित करने के लिएं राजनीतिक सत्ा में पर्याप्त प्लतलनलितव मिलना चिाहिए । अत : उनका सुझाव था कि केत्द्री्य तथा प्रान्तीय विधान मंडलों में दलितों की भागीदारी हेतु पर्याप्त प्लतलनलितव के लिए कानून बना्या जाना चिाहिए । इसी प्कार उनका मानना था कि लनवा्यचिन कानून
बनाकर ्यह व्यवस्ा की जानी चिाहिए कि प््म दस वर्ष तक दलित वर्ग के व्यसक मताधिकारि्यों द्ािा पृथक लनवा्यचिन के माध्यम से अपने प्लतलनलि का लनवा्यचिन लक्या जाना चिाहिए तथा बाद में दलित वर्ग हेतु आिलक्त स्ानों पर सम्बन्धित लनवा्यचिन क्ेरि के सभी व्यसक मताधिकारि्यों द्ािा लनवा्यचिन लक्या जाना चिाहिए ।
डा . आंबेडकर का मत था कि दलित वर्ग के उत्ान के लिए ्यह भी आवश्यक है कि उन्हें सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्लतलनलितव लद्या जाना चिाहिए । उनके अनुसार इसके लिए दलित वर्ग हेतु आिक्ण की व्यवस्ा की जानी चिाहिए और सेवाओं में पर्याप्त स्ान दिलाए जाने के लिए सरकार को विशेष संवैधानिक तथा कानूनी प्ावधान करने चिाहिए । डा . आंबेडकर का मानना था कि दलित वर्ग को नीति निर्माण के कार्यों में
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