एक नई विसंगति ने जन्म लल्या । जिसके परिणामसवरूप बसपा को लोगों ने सत्ा से चिलता कर लद्या । बसपा ने भी केवल सत्ा सवा््य ही देखा और दलितों के कंधों को प्रयोग करके अपनी राजनीतिक सवा््यपूलत्ति की । बसपा की नेता मा्यावती ने भी अपने दलित भाइ्यों को केवल अपने सवा््य के लिए प्रयोग लक्या । कहने का अभिप्राय है कि वे भी वोट की राजनीति से ऊपर उठ नहीं पाई ।
वासतव में देश में दलित कलौन है और दलित होने का लाभ किसको किस आधार पर दिए जा सकता है ्या लद्या जाना चिाहिए ? - इस बात पर कभी चिचिा्य नहीं हुई । ्यहां पर जालत्यों ्या वगथों को थोक के भाव दलित शोषित मान लल्या ग्या । ्यह तब हुआ जब जाति , धर्म , लिंग से आधार पर नागरिकों के मध्य किसी प्कार का भेदभाव ना करने की बात देश का संविधान
करता है । किसी दूसरी जाति के अधिकारों को छीनकर किसी एक को देना भी राजनीतिक जातिवाद है । इस राजनीतिक जातिवाद को हमारे देश में आिक्ण के नाम पर खुललमखुलला अपना्या ग्या । देश में जिस प्कार जातिवाद राजनीतिक सति पर दिखाई देता है उसके लिए देश की राजनीति और राजनीतिक दल उत्िदा्यी हैं । जहां तक दलित कलौन है ? का प्श्न है तो प्त्येक वह व्यक्ति जो किसी ना किसी प्कार से दलन , दमन और अत्याचिार का शिकार हो रहा है , उसे दलित कहा जाना चिाहिए । ऐसा व्यक्ति किसी जाति विशेष का नहीं हो सकता । वह कोई भी हो सकता है । इसलिए दलित किसी जाति विशेष के साथ जोडा जाना उलचित नहीं है । प्त्येक ऐसे व्यक्ति को दलित माना जाना चिाहिए जो किसी ना किसी सक्म , समर्थ और शक्तिशाली व्यक्ति के शोषण और दलन का शिकार है ।
्यहां ्यह बताना भी उलचित होगा कि हमारे देश में यद्यपि संविधान को सववोपरि मानकर राजनीति की जाती है , राजनीतिक दल और उनके नेता अकसि ्यह कहते सुने जाते हैं कि संविधान सववोपरि है , परंतु ्य्ार्थ में स्थिति दूसरी है । ऐसे कई काम इस देश में हो रहे हैं जो संविधान में कहीं उल्लिखित नहीं हैं । इसके उपरान्त भी देश की राजनीति में वे इस प्कार स्ान प्ा्त कर चिुके हैं जैसे वे पूर्णतः संवैधानिक हों । जैसे राजनीतिक दलों के निर्माण की प्लक्या को आप लें । राजनीतिक दलों के निर्माण की प्लक्या का उललेख देश के संविधान के किसी प्ावधान ्या अनुचछेद में नहीं है । इस प्कार राजनीतिक दलों का जन्म भारत में अवैध संतान के रूप में होता है और फिर वे वैध संतान के रूप में संविधान के नाम पर खाते कमाते हैं ।
कहने का अभिप्राय है कि देश के राजनीतिक दल इसलिए ऐसा आचििण करते हैं कि उनकी कोई संवैधानिक जिममेदारी नहीं होती । ्ये देश में जातिवाद , संप्दा्यवाद , क्ेरिवाद , भाषावाद आदि को लेकर लोगों को भडकाने और उकसाने का काम करते रहते हैं । जब सत्ा में आ जाते हैं तो देश के संविधान को सववोपरि बताने का
नाटक करते हैं । ्यही कारण है कि देश में कई प्कार की समस्याएं इन राजनीतिक दलों के द्ािा ही पैदा की गई हैं । देश के दलितों के साथ ्यलद त््या्य नहीं हो पा्या है तो इसके लिए राजनीतिक दल ही जिममेदार हैं । इनकी इचछा शक्ति बहुत ही दुर्बल है । इन्होंने असपृ््यता मिटाने के लिए कभी मन से प्रयास नहीं लक्या । राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए आिक्ण और सरकारी जमीन को पट्टे पर दलितों को देने की ्योजना के अतिरिकत इन्हे कुछ और सूझा ही नहीं ।
राजनीतिक दलों के नेताओं का कहना है कि समाज से जातिवाद , अंिलव्वास , जड पूजा और असपृ््यता को मिटाना राजनीतिक लोगों का काम ना होकर सामाजिक नेताओं का काम होता है । ्यह तर्क भी बहुत ही दुर्बल और अटपटा है । पहली बात तो ्यह है कि ्यलद किसी जाति विशेष के उत्ान और उद्धार के लिए ्ये वोट मांगते हैं तो समाज की विसंगलत्यों को मिटाने का काम भी इन्हीं का है । इसके अतिरिकत दूसरी बात ्यह है कि अब से पूर्व भी देश के अनेक राजा महाराजा ऐसे रहे हैं जिन्होंने सामाजिक विसंगलत्यों के विरुद्ध स्वयं अलभ्यान चिला्या और उन्हें तोडने का साहस करके दिखा्या ।
बड़ौदा के आ ्य नरेश स्याजीराव गा्यकवाड ने अपने शासनकाल में ऐसे छह राजलन्यम बनाए थे , जिनसे सामाजिक विसंगलत्यों को उखाडने में सहा्यता मिली थी । वह आ ्य सत््यासी सवामी नित्यानंद के उपदेशों से इतने प्भावित हुए कि सामाजिक आंदोलन के क्ेरि में स्वयं उतर गए । उन्होंने 1908 में वैदिक विद्ान मासटि आतमािाम अमृतसरी को बड़ौदा में आमंलरित लक्या था और उनके नेतृतव में दलितों के कल्याण के लिए लगभग 400 पाठशालाऐं स्ालपत करवाई थीं । जिनमें बीस हजार दलित समाज के बच्चों को पढ़ने का अवसर उपलबि करवा्या था । इस संदर्भ में हमें ्यह भी ध्यान रखना चिाहिए डा . आंबेडकर को छारिवृलत् देने वाले भी ्यही बड़ौदा नरेश थे , जो मूल रूप से आ ्य समाज की लवचिारधारा से प्भावित हुए थे ।
जब डा . आंबेडकर शिक्ा हेतु लिए गए बीस
flracj 2024 33