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जन्मदिवस पर शविषेष

दलित कल्ाण मं दीनदयाल उपाधयाय की भूमिका

डषा . विजय सोनकर शास्त्री

21 वी सदी में अगर धयान दिया जाए तो संचार एवं समपक्क की दृष्टि से पूरा विशि एक ग्ाम का रूप लेता जा है और सिकेपनद्रत होकर सिर्फ भौतिक साधनों के जरिए अधिकतम सुख की खोज वयप्त के जीवन का उद्ेशय बन गया है । इसका परिणाम यह है कि वयप्त के वयप्तति , समाज तथा समपूण्ग विशि मंच में आनतरिक विरोधाभास दिखाई देने लगा है । इसके विपरीत भारत के प्राचीन चिंतकों ने वयप्त के आनतरिक वयप्तति के पहलुओं , वयप्त-समाज एवं सृष्टि के बीच गूढ़ समबनधों पर गहन चिनतन किया और उसी चिंतन के आधार पर पंडित दीन दयाल उपाधयाय ने एकातम मानववाद के दर्शन का प्रतिपादन किया । उनके एकातम मानववाद के दर्शन ने अर्थ के मोह में वयथ्ग हो रहे वयप्त के जीवन को सही मायने में समर्थ बनाने का मार्गदर्शन किया ।

भारतीय जनसंघ की सथापना के बाद उसके काय्गरिमों एवं उद्ेशयों को सपष्ट करते हुए पंडित दीनदयाल जी ने अपने दर्शन में इस बात को भली-भांति प्रतिपादित किया कि जनसंघ का निर्माण केवल राजनैतिक रर्तता को भरने के लिये नहीं किया गया , बपलक उसका उद्ेशय भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्िाद के आधार पर देश की सिांगीण पुनर्रचना करना है । जनसंघ और उसके उत्राधिकारी के रूप में भारतीय जनता पाटसी अब पंडित दीन दयाल उपाधयाय के प्रेरणापूर्ण जीवन और दर्शन पर चलते हुए देश की राजनीति का केनद्र बिनदु बन गयी है ।
पंडित दीनदयाल जी के चिंतन पर अगर गौर
किया जाए तो भारतीय परिप्रेक्य में जहां उनका चिंतन समाज के अंतिम पायदान में खड़े पिछड़ों , दलितों , गरीबों एवं वंचितों को बराबरी पर लाने और उनके कलयाण का सनदेश देता है , वही पंडित दीनदयाल जी ने एक ऐसे आर्थिक विकास के प्रारूप की बात भी कही जो वयप्त के आनतरिक वयप्तति , परिवार , समाज तथा सृष्टि के साथ समबनधों में किसी भी तरह का संघर््ग न पैदा होने दे । वैदिक शासत्रों में धर्म के साथ अर्थ को जोड़कर कामनाओं के पूर्ति की बात जरूर कही गई है , जिसका अपनतम लक्य मोक् की प्रापपत है । इसके विपरीत वर्तमान में अर्थ जीवन का आवशयक आधार नहीं , बपलक जीवन
का लक्य बन गया है ।
पं . दीनदयाल जी के अनुसार आर्थिक विकास के तीन लक्य हैं- राजनीतिक सितंत्रता की रक्ा का सामथय्ग उतपन्न करना , लोकतंत्रीय पद्धति के मार्ग में बाधक न होना और वह सांस्कृतिक मूलय जो राष्ट्ीय जीवन के कारण , परिणाम और सूचक हैं , की रक्ा करना होना चाहिये । यदि इनहें गवांकर कर अर्थ कमाया गया तो वनपशचत ही वह अनर्थकारी और निरर्थक होगा । पंडित जी की निगाह में सिांगीण पुनर्रचना को हासिल करने के लिए सबसे पहले आर्थिक असमानता , भेदभाव एवं विर्मताओं को समापत करना है ।
पपणित दीनदयाल जी ने अपने राजनीतिक
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