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नीति ( एनपीई ) की जगह ली । माना यह जा रहा था कि नई राष्ट्ीय शिक्ा नीति भारतीय शिक्ा प्रणाली में रिांवतकारी बदलाव लाएगी । नई राष्ट्ीय शिक्ा नीति न केवल समग् समावेशी शिक्ा के लक्यों के अनुरूप है , बपलक सहस्ाबदी विकास लक्यों के साथ-साथ सतत विकास लक्यों के भी अनुरूप है । लेकिन शिक्ा क्ेत्र में गरीब , दलित , पिछड़ी एवं आदिवासी वर्ग की सहभागिता में अब तक कोई उललेखनीय वृद्धि नहीं दर्ज की सकी है ।
नई राष्ट्ीय शिक्ा नीति का लक्य 2040 तक देश की शिक्ा प्रणाली में पूर्ण बदलाव लाना है । इसके अंतर्गत शिक्ा का सार्वभौमीकरण , पाठ्य चर्या और शैक्वणक पुनर्गठन , उच्च शिक्ा में संरचनातमक सुधार , विभिन्न पृष्ठभूमि के छात्रों के लिए समावेशी और गुणवत्ापूर्ण शिक्ा , सीखने के परिणामों में समानता को बढ़ािा , विशेर् शिक्ा क्ेत्रों को विकसित करना , जहां सभी योजनाओं और नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकता है , छात्रों का कौशल विकास एवं वयािसायिक शिक्ा तथा शिक्ा के विसतार हेतु अधिक सार्वजनिक धन जुटाना आदि मुद्ों पर कार्य किया जाना है । यह बिंदु बेहतर ढंग से समझाते हैं कि कैसे नई राष्ट्ीय शिक्ा नीति का लक्य सभी को बिना किसी भेदभाव के गुणवत्ापूर्ण और समावेशी शिक्ा
प्रदान करना है , जिससे भारत की सांस्कृतिक और आधयापतमक िड़ों से जुड़े रहकर विशि सतरीय गुणवत्ापूर्ण शिक्ा सभी को मिल सके ।
लेकिन वयिहार्य में यह आसान कार्य नहीं है ्योंकि वासतविक समसया इस तथय में निहित है कि यह सीधे तौर पर पुरातन शैवक्क ढांचे को चुनौती देता है । इसलिए इसे जमीन पर लागू करना एक बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा सकता है । लगातार प्रयासों के बाद भी प्राथमिक सतर से लेकर उच्च शिक्ा सतर तक गरीब , दलित , पिछड़े एवं आदिवासी वर्ग की लड़कियों का प्रतिशत नहीं बढ़ पा रहा है । सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों के बाद भी गरीब , दलित , पिछड़े एवं आदिवासी वर्ग की लड़कियों के ड्ाप आउट की समसया बनी हुई है । गंभीरता से समझना यह होगा कि तमाम सुधारातमक उपाय के बाद भी गरीब , दलित , पिछड़े एवं आदिवासी वर्ग की लड़कियों की शिक्ा से दूरी बनी हुई है ।
वर्तमान समय में उच्च शिक्ा उस संतृपत बिंदु पर आ गई है , जहां यह केवल छात्रों के बीच बेचैनी और चिंता पैदा कर रही है । प्रतिसपधा्ग की बढ़ती संखया और एक बुनियादी प्रवेश सतर की नौकरी पाने के लिए भी प्रतियोगी परीक्ाओं को पास करने की आवशयकता के कारण समावेशी विकास और शिक्ा का पूरा विचार किसी तरह से खतम हो गया है । ऐसे में एक
प्रश् सामने आ खड़ा होता है , वह है परीक्ा के लिए इंतजार करने का धैर्य कहां से लाएंगे ? आवेदन पत्रों के लिए पैसे और आवेदन पत्रों के साथ जमा की जाने वाली दस हजार फोटोकलॉपी कहां से लाएंगे ? आवंटित परीक्ा केंद्र तक पहुंचने के लिए आप पैसे कहां से लाएंगे ? ्योंकि नगर से बाहर परीक्ा केंद्रों तक पहुंचना अपने आप में एक कठिन काम है । ऐसी पसथवतयों में लड़कियों की शिक्ा से जुड़े तमाम प्रश् अनदेखे कर दिए जाते हैं ।
उच्च शिक्ा क्ेत्र में दलित , पिछड़ी एवं आदिवासी वर्ग की लड़कियों का प्रतिशत बहुत कम है । इसके पीछे कई कारण है । पीएचडी करने वाली दलित , पिछड़ी एवं आदिवासी वर्ग की लड़कियों के सामने अनतः रोजगार के प्रश् आ खड़े होते हैं । इस संबंध में प्रसिद्ध शिक्ाविदों में से एक , मार्क सी टेलर ( नयूयलॉक्क में कोलंबिया विशिविद्ालय में धर्म विभाग के अधयक् और ' रिाइसेस ऑन कैंपस : ए बोलि पलान फलॉर रिफॉर्मिंग अवर कलॉलेजेज एंड यूनिवर्सिटीज ' के लेखक ) ने टिपपणी की है कि या तो पीएचडी प्रणाली में सुधार करें या इसे बंद करें । अधिकांश डॉक्टरेट काय्गरिम मधय युग में परिभावर्त मलॉिल के अनुरूप हैं । ऐसे में विचार करना ही होगा कि इ्कीसवीं सदी में डॉक्टरेट शिक्ा को वयिहार्य बनाए रखने के लिए विशिविद्ालयों
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