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जनजातियों को शोषण से मु्ि कराना , अपने धर्म एवं संस्कृति कमी रक्ा करना , रोगियों एवं गिमीबों कमी सहायता करना , भगवान बिरसा के जमीिन का लक्य था । बालयकाल से हमी बिरसा मेधािमी और कुशाग् बुद्धि के धनमी थे । पढ़ाई में अचछे होने के कारण उनके माता-पिता ने उनका नामांकन ईसाई मिशनिमी विद्यालय में कराना चाहा , परंतु उस विद्यालय कमी एक शर्त थमी कि अगर इस विद्यालय में बच्े को पढ़ाना चाहते हैं तो मतांतरित होकर ईसाई बनना पड़ेगा । मजबमूिन बिरसा को भमी अपना मत परिवर्तन करना पड़ा और उनका नाम डेविड / दाउद रखा गया । परंतु सनातन मत के प्रति आसथािान बिरसा को ईसाई मत नहीं
भाया और कुछ समय तक पढ़ाई करने के बाद पुनः अपने धर्म में वापस लौ्ट आए । बिरसा मुंडा ने जबरन मत परिवर्तन के विरुद्ध जन सामानय को जागरूक किया तथा वनवासियों कमी परंपराओं को जमीवित रखने के लिए अथक प्रयास किए ।
बिरसा का बचपन
भगवान बिरसा मुंडा का जन् 15 नवंबर 1875 को रांचमी के नजिमीक रमूं्टमी के अड़कमी प्रखंड अंतर्गत उलौहािमू नामक गांव में हुआ था । भगवान बिरसा के माता-पिता का नाम कि्मी और सुगना मुंडा था । बिरसा के पमूि्खज चु्टटू मुंडा और नागमू मुंडा थे । घर कमी मािमी हालत ठमीक नहीं होने के कारण बालक बिरसा को अपने मामा के यहां आयुतबहातु जाना पड़ा । वहां पर वह दो वर्ष तक रहे और वहीं के एक विद्यालय में पढ़ने लगे । बिरसा का अपने छो्टमी मौसमी से जयािा लगाव था , मौसमी भमी उसे बहुत मानिमी थमी । इसमी बमीच मौसमी कमी शािमी हो गई और बिरसा भमी मौसमी के साथ उनके ससुराल चले गए । यहां बिरसा कमी मुलाकात ईसाई पादरियों से हुई , जो उस समय ईसाई मत के प्रचार-प्रसार में जु्टे हुए थे । बिरसा को पाििमी लोग पसंद नहीं आए । बताया जाता है कि ईसाई पाििमी मुंडाओं कमी आलोचना करते थे । बिरसा कमी बचपन से हमी पढ़ाई-लिखाई करने में रूचि थमी । बिरसा ने वहीं पर गांव के एक विद्यालय में प्रवेश लिया । विद्यालय से छुट्टमी मिलने के बाद वह भेड़- बकरियों को चराने के लिए भमी जाते , इस दौरान भमी उसके मन में पढ़ाई-लिखाई कमी बातें हमी घमू्िमी रहिमी थीं । इसमी तरह एक दिन बालक बिरसा अपनमी पढ़ाई कमी पाठों को मन में घुमाते घुमाते इतना रम गए कि उनहें याद हमी नहीं रहा और उनके भेड़-बकरियों ने खेतों में लगमी फसल को खा लिया । खेत के मालिक ने बालक विरसा कमी वप्टाई कर िमी , विरसा कमी इस लापरवाहमी से उनके रिशिेिार यानमी मौसमी और उसके ससुराल वाले भमी नाराज हो गए , जिस कारण उनहें मौसमी का गांव छोड़ना पड़ा ।
चाईबासा में बिरसा को लंबा समय गुजारना
पड़ा यानमी 1886 से 1890 तक वह चाईबासा में हमी रहे । ईसाई मिशनरियों द्ािा संचालित होने के कारण सकूि पर ईसाई पादरियों का वयापक प्रभाव था । एक दिन चाईबासा मिशन में डा . नोट्रो्ट ने अपने उपदेश के दौरान निमीन ईसाईयों से वादा किया था यदि इस प्रांत के लोग ईसाई बने रहेंगें तो उनको छमीनमी गई ज्मीनें वापस करा िमी जाएगमी । 1886-87 में धोखेबाजमी के कारण सरदारों का मिशनरियों से ्टटू्ट गया । िमूसिमी बार डा . नोट्रो्ट ने उपदेश के दौरान निमीन ईसाईयों को धोखेबाज कहा , तब बिरसा ने उन मिशनरियों कमी कड़ी आलोचना कमी और काफमी बुरा-भला कह कर विद्यालय को छोड़ दिया ्योंकि बालयकाल से हमी बिरसा अपने धर्म और संस्कृति के प्रति काफमी संवेदनशमीि थे । 1890 के लगभग में बिरसा और उसके परिवार ने चाईबासा को छोड़ दिया एवं ईसाई मत का परितयाग कर अपने ्मूि धर्म कमी उपासना करने लगे । अपने धर्म , जाति और संस्कृति कमी अकस्िा पर मंडराते खतरे को महसमूस करने के बाद उनहोंने संकलप लिया कि यह अपने समाज के लोगों के बमीच जागरूकता फैलाएंगे , उनहें उनके अधिकारों से परिचित कराएंगे और अपने अधिकारों एवं ज्मीनों को वापस पाने के लिए आंदोलन करेंगे ।
भारती्य संस्कृति के वाहक बिरसा
धर्म , संस्कृति और परंपरा के प्रति बिरसा कमी गहिमी रूचि थमी । धर्म कमी उपासना के लिए उनहोंने चार िषगों तक कठिन साधना भमी कमी । वह हमेशा धोिमी पहनते थे , माथे पर चंदन लगाते और यज्ोपिमीि धारण करते थे । उनहोंने अपने समाज के लोगों को अपने धर्म , संस्कृति और परंपरा के प्रति जागरूक भमी किया । 1891 में बिरसा बदगांव गए । इस दौरान वह वहां सथानमीय जमींदार जगमोहन सिंह के मुंशमी आनंद पांडे के संपर्क में आए । पांडेय वैषणि भ्ि थे । बिरसा ने िमीन साल बंदगांव में हमी व्यतीत किए । इस दौरान एक वैषणि साधु से बिरसा कमी मुलाकात हुई । साधु बमनमी बड़ाईक के यहां उपदेश देने आया करते थे । बिरसा का वैषणि के प्रति रुझान
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