May-June 2024_DA | Page 48

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दलितों के दीनदयाल

डा . विजय सोनकर शास्त्री

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वी सदी में अगर धयान दिया जाए तो संचार एवं समपक्फ की दृसष्र् से पूरा विशव एक ग्ाम का रूप लेता जा है और सवकेसनद्रि होकर सिर्फ भौतिक साधनों के जरिए अधिकतम सुख की खोज वयसकि के जीवन का उद्ेशय बन गया है । इसका परिणाम यह है कि वयसकि के वयसकितव , समाज तथा समपूण्ण विशव मंच में आनिरिक विरोधाभास दिखाई देने लगा है । इसके विपरीत भारत के प्राचीन चिंतकों ने वयसकि के आनिरिक वयसकितव के पहलुओं , वयसकि-समाज एवं सृसष्र् के बीच गूढ़ समबनधों पर गहन चिनिन किया और उसी चिंतन के आधार पर पंडित दीन दयाल उपाधयाय ने एकातम मानववाद के दर्शन का प्रतिपादन
किया । उनके एकातम मानववाद के दर्शन ने अर्थ के मोह में वयथ्ण हो रहे वयसकि के जीवन को सही मायने में समर्थ बनाने का मार्गदर्शन किया ।
भारतीय जनसंघ की सथापना के बाद उसके काय्णरिमों एवं उद्ेशयों को स्पष्ट करते हुए पंडित दीनदयाल जी ने अपने दर्शन में इस बात को भली-भांति प्रतिपादित किया कि जनसंघ का निर्माण केवल राजनैतिक रिकििा को भरने के लिये नहीं किया गया , बसलक उसका उद्ेशय भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्वाद के आधार पर देश की सवयंगीण पुनर्रचना करना है । जनसंघ और उसके उत्िाधिकारी के रूप में भारतीय जनता पार्टी अब पंडित दीन दयाल उपाधयाय के प्रेरणापूर्ण जीवन और दर्शन पर चलते हुए देश
की राजनीति का केनद्र बिनदु बन गयी है ।
पंडित दीनदयाल जी के चिंतन पर अगर गौर किया जाए तो भारतीय परिप्रेक्य में जहां उनका चिंतन समाज के अंतिम पायदान में खड़े पिछड़ों , दलितों , गरीबों एवं वंचितों को बराबरी पर लाने और उनके कलयाण का सनदेश देता है , वही पंडित दीनदयाल जी ने एक ऐसे आर्थिक विकास के प्रारूप की बात भी कही जो वयसकि के आनिरिक वयसकितव , परिवार , समाज तथा सृसष्र् के साथ समबनधों में किसी भी तरह का संघर््ण न पैदा होने दे । वैदिक शासत्ों में धर्म के साथ अर्थ को जोड़कर कामनाओं के पूर्ति की बात जरूर कही गई है , जिसका असनिम लक्य मोक्ष की प्रासपि है । इसके विपरीत वर्तमान में अर्थ जीवन का आवशयक आधार नहीं , बसलक जीवन
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