May-June 2024_DA | Page 45

में आ रही बाधाओं के निदान के पक्षधर थे । बेशक दोनों ही तवतशष्र् हसिाक्षरों की सैदांतिक डगर अलग-अलग थी , लेकिन मंजिल तक पहुंचने का लक्य एक था । डॉ हेडगेवार हिनदू समाज को संगठित होने की आवाज मुखर कर रहे थे । उनका मकसद यह था कि हिनदू समाज जाति-भार्ा और प्रांतीय भेदभाव की संकीर्ण सीमाओं से निकल कर सभी पारसपरिक तवद्रेर् भुलाकर एकातमकता के मार्ग को एकजुर् होकर प्रशसि करे । जातियों को संगठित करने में उनका यकीन नहीं था कयोंकि जातीयता हिनदू समाज की एकता में बाधक थी । इसी वयवसथा के निवारण के मद्ेनजर जातियां बंधन से ऊपर उठकर पारसपरिक समरसता कायम करने के वह प्रबल पक्षधर थे । इसी शाशवि दृश्टिकोण के आलोक में राष्ट्ीय सवयं सेवक संघ का सफर सतत जारी है । इस अभियान में दलित , आदिवासी , वनवासी , पिछड़े-अगड़े सभी शामिल हैं और समरसता की मिसाल पेश करने में कामयाब हुए हैं ।
सविंत्िा मिलने के बाद गांधी जी ने अपने
उदगार वयकि करते हुए कहा था कि सविाज तो मिल गया पर अब हमें सुराज लगाया है । ऐसी हकीकत के आलोक से रूबरू करते हुए विचारक , चिंतक और राष्ट्ीय सवयं सेवक संघ के दिगदश्णक पंडित दीनदयाल उपाधयाय ने बेबाक शैली में रेखांकित किया है कि अगर देश विकास कर रहा है और अगर इस देश के विकास की किरण हमारी सीढ़ी पर खड़े उस अंतिम वयसकि तक नहीं पहुंच रही तो देश का विकास बेमानी होगा । तनसशचि ही इन दोनों ही महापुिर्ों ने अपने अपने उदगारों से देश समाज का समग् विकास और मजबूत भविष्य बनाने की दिशा में न सिर्फ प्रेरक मशाल दिखाई थी , बसलक आगाह भी किया था । एक लमबे अरसे तक सत्ा शिविरों से यह उदगार मुखर होते तो देखे गए लेकिन परदे के पीछे का सच यह भी बेनकाब करता रहा कि जमीनी धरातल पर इसे अमल में नहीं लाया गया । नतीजा सामने है ।
जाति की सीमाओं को तोड़ते हुए पारसपरिक समरसता की डगर पर सबका साथ-सबका विकास के उद्घोष के साथ आगे बढ़ते हुए आज देश को एक ऐसा प्रधानमंत्ी नरेंद्र दामोदर दास मोदी के रूप में मिला है , जो सुराज लाने का गाँधी जी का सपना साकार करने और पंडित दीनदयाल के उदगार अंतिम पायदान पर खड़े वयसकि के विकास के लिए ककृि संकलप होने का अहसास यथार्थ के धरातल से पूरी तशद्ि के साथ करा रहा है । भाजपा शासित राजयों में हाल में हुई दलित उतपीड़न की घर्नाओं की जितनी भी निंदा की जाये , काम होगी । लेकिन देश के प्रधानमंत्ी नरेंद्र मोदी ने अपने कड़े रूख का अहसास भी कराया है । मार्ग बाधाओं से विचलित हुए बिना दलितों के समग् विकास का उनका अभियान सतत जारी है और लक्य को हासिल करने के लिए भी ककृि संकलप है ।
राजनीति के खेल का इसे प्रतीक कहा जायेगा कि मामूली मौका मिलते ही विकास की समग् मुहिम की हवा निकलने की साजिशें शुरू हो जाती है । नेपथ्य के आगे पीछे से जारी खेल की भी दरअसल अपनी बेचैनी है । दलितों और
पिछड़ों की लड़ाई का दावा करने वाले वाम दल अब काफी पीछे छूर् चुके हैं । इसकी वाम दलों ने कभी कलपना भी नहीं की थी । कांग्ेस की बैशाखी बनने और उसके साथ कनधा से कनधा मिलाकर चलने में उनहोंने किंचित परहेज नहीं किया । यही वह बिंदु हैं , जिसकी भरपाई करना वाम दलों के लिए फिलहाल संभव नहीं है । वर्ग शत्ु से हाथ मिलाने का कुपरिणाम है भरोसे का र्ूर्ना । इसी र्ूर्े भरोसे की वजह से कांग्ेस और वाम दल अब राजनीति के किनारे पर आ कर खड़े हो गए हैं । दलित और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के विकास का ढोंग करने और निज हित साधकर अपने को सुदृढ़ करने के खेल का दौर समापि हो चुका है । अब सिकका उसी का चलेगा जो दलितों के समग् विकास की इबारत लिखेगा । इस कसौर्ी पर प्रधानमंत्ी नरेंद्र मोदी का संकलप सबका साथ-सबका विकास , वयसकि पैमाने पर खरा उतरने का सहज ही अहसास करा देता है ।
दलित चिंतन विकास के परिप्रेशय में लोकमानय तिलक के हिमालय सरीखे वयसकितव- विचार-ककृतितव को कदापि असवीकार नहीं किया जा सकता है । सविंत्िा मिलने के लगभग तीन दशक पहले ही अपने दृढ संकलप और दूर दृसष्र् इरादे को वकि के पन्नों पर अंकित कर देने मिसाल उनहोंने कायम की थी । दो र्ूक शबदों में उनहोंने विद्रोही बिगुल बजाया था कि यदि ईसवि असपृसयिा को मानेगा तो मैं उसके अससितव को सवीकार करने को तैयार नहीं हूँ । तनसशचि ही लोकमानय तिलक एक बेजोड़ शिखर हसिाक्षर थे । उनका निधन भले ही 1 अगसि 1920 को भले ही हो गया हो , लेकिन वह भारतीय मानस पर्ल पर अपनी अतमर् छाप के साथ साथ युगों तक अमर रहेंगे । इस कड़ी में एक शासवि बात बाबा साहब अमबेिकर ने भी कही थी , वह यह कि देश की राजनीति में शीर््ण सथान पर बैठे लोग चरित्वान होने चाहिए । समपूण्ण समाज के उत्कर्ष का मनोभाव और वयसकिगत सवाथयो की शूनयिा ही श्रेष्ठ चरित् का लक्षण और इसी से ही दलित समाज का समग् कलयाण और विकास संभव है । �
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