May-June 2024_DA | Page 44

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करने की मूल मंशा यह थी कि दलित समाज का प्रतिनिधि ही सही अथयो में दलित समाज की समसयाओं , उनके हितों , पीड़ाओं और चिंताओं को समझ सकता है और उनके समाधान निवारण की दिशा में निष्ठा और ईमानदारी से पहल कर सकता है । सवाल यह पैदा होता है कि कया दलित नेतृतव ऐसा कर पा रहा है ? इसका जवाब खोजने पर जो हकीकत सामने आती है , वह बेहद निराश करने वाली है । मिसालें एक नहीं अनेक हैं , जिनके आलोक में इस हकीकत को जांचा , परखा और देखा जा सकता है । कहना गलत नहीं होगा कि दलित नेतृतव सिर्फ दलितों के सहारे निज विकास का वैभवशाली ग्ाफ रचने में कामयाब हुआ है ।
दलितों के हितों-हकों और समग् विकास की उसे किंचित परवाह नहीं है । दलितों के मसीहा माननीय कांशीराम ने दलित आंदोलन की धार पैनी कर दलितों को विकास की डगर पर आगे बढ़ने की जुझारू मिसाल पेश की । उनकी धारदार पैनी रणनीति के फलसवरूप बसपा देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्ि प्रदेश के सत्ा सिंघासन तक पहुंचने में कामयाब हुई । यह कांशीराम के रणनीतिक कौसल का ही कमल था कि पहले उनहोंने गठबंधन की नीति अपनायी और फिर आगे चलकर अकेले दम पर बसपा ऐतिहासिक जीत का डंका बजाते हुए सत्ा पर आसीन होने में कामयाब रही । तथ्यों के आलोक में देखा जाये तो 1991 में 9.4 फीसदी वोर् हासिल कर राजय सिि पर जहां बसपा ने राजनीति में अपनी प्रतिभागिता दर्ज करायी थी , उसी बसपा ने 2007 में 30.7 फीसदी वोर् लेकर भारी बहुमत से अपनी विजय का परचम लहराया था । बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपनी विविध आयामी कामयाबी को रेखांकित किया । नौकरशाही और सूबाई परिदृशय पर दलितों की उपससथति और पहचान को बढ़ावा देने की रणनीति को भी उनहोंने अमली जामा पहनाया । दलितों के राजनीतिक और आर्थिक कद को भी उनहोंने बढ़ाया , लेकिन आम दलितों के हालत में कोई खास फर्क नहीं आया । सत्ाप्रसथ से लोकलुभावन किये गए अनेक
प्रयासों के बावजूद भूमि और मजदूरी के झगड़ों में कारगर भूमिका निभाने और असमानता -गरीबी निवारण की नीतियों को अमलीजामा पहनाने में बसपा विफल रही । प्रचंड बहुमत से सत्ा में आयी बसपा को 2012 के विधानसभा चुनाव में पराजय का मुंह देखना पड़ा ।
दलित नेतृतव के मूल सिदांि में आये बदलावों का ही नतीजा कहा जायेगा कि बसपा संसथापक कांशीराम के दौर के कई जुझारू और भरोसेमंद दलित नेता बसपा से बहार कर दिए गए और कुछ असंतुष्र् हो कर पार्टी से विमुख हो गए । राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जाति विशेर् के हित साधन और पार्टी विशेर् के अहम के कारण 2017 के उत्ि प्रदेश के बिधानसभा चुनाव में भाजपा की प्रचंड जीत और बसपा की शर्मनाक पराजय हुई । इसके मूल में गैर जार्व दलित जातियों द्ािा बसपा को जातवो की पार्टी कहकर भाजपा को वोर् देने का सच निहित है । देखा जाये तो जातिगत रोग से लगभग सभी राजनीतिक पातर््टयां ग्सि हैं । भाजपा बेशक सबका साथ-सबका विकास
का अहसास करा रही है । तनसशचि ही उसे इस संकलप सूत् का राजनीतिक लाभ भी हासिल हुआ है ।
वैसे देखा जाये तो यह बात सच ही लगती है कि दलितों के हितों की लड़ाई लड़ने के मोचदे पर तैनात राजनीतिक दल बाबा साहब अमबेिकर आंबेडकर के मूलभूत सिदांि से भर्क गए हैं । बाबा साहब अमबेिकर का दलितों का समग् विकास और एक समरस भारत बनाने का सपना था । इसको मूर्त रूप प्रदान करने के लिए उनहोंने पूरे मनोयोग के साथ एक सामाजिक रिांति का सूत्पात् भी किया । हिनदू मुससलम एकता के परिप्रेक्य में डॉ अमबेिकर का नजरिया किसी भ्रम का शिकार नहीं है । समरसता के प्रति उनके विशेर् लगाव का ही इसे घोतक कहा जायेगा कि मुससलम कट्िपंथियों के विरुद उनका रुख बेहद कठोर था । डॉ अमबेिकर के समरस भारत में सनदभ्ण में राष्ट्ीय सवयं सेवक संघ की भूमिका को भी कदापि नाकारा नहीं जा सकता है । डॉ अमबेिकर और डॉ केशव बलिराम हेडगेवार , दोनों ही हिनदू समाज के संगठित होने
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