May-June 2024_DA | Page 41

उनहें हिंदू धर्म के देवी-देवताओं के भी मंदिर चाहिए । जो आर्थिक रूप से थोड़े मजबूत हैं , उनहें धार्मिक तीथषों और धार्मिक उतसवों को खुलकर मनाने की भी छूर् चाहिए । उनमें से अनेक ने बौद धर्म को अपने धार्मिक सथान के
रूप में अपने लिए आतवष्ककृत किया ही है । साथ ही गांवों में रहने वाले तमाम दलितों को ‘ अपने कुलदेवता पूजने की भी छूर् चाहिए । पहले जहां खेतों-बागों में पीपल के पेड़ के नीचे मिट्ी के चबूतरे पर मूर्ति रखकर पूजा की जाती थी , वहां अब छोर्े मंदिर विकसित होने लगे हैं । जैसे-जैसे गांवों में दलित-वंचित समूह आर्थिक रूप से थोड़ा बेहतर होता जा रहा है , वैसे-वैसे उनहें
भवय मंदिर भी चाहिए । शायद इसी भाव की अभिवयसकि उनमें विकसित हो रही ‘ मंदिर की चाह में प्रस्फुटित होती है ।
जयापुरा बनारस के पास प्रधानमंत्ी नरेंद्र मोदी का गोद लिया गांव है । वहां मुसहर जाति
की एक बसिी है , जिसका नाम ‘ अर्लनगर रखा गया है । उसके प्रवेश पर ही पेड़ के पास एक छोर्ा मंदिर बनाया गया है जिसमें ‘ शिवजी के साथ ‘ शबरी माता की एक छोर्ी मूर्ति लगाई गई है । गांव में मुहसर जाति के लोग बहुत दिनों से चाह रहे थे कि , ‘ काश उनके लिए शबरी माता का मंदिर होता , लेकिन उनके पास ‘ शबरी माता का एक छोर्ा मंदिर बनाने की न तो आर्थिक
शसकि है और न ही सामाजिक ताकत । आज वे इस मंदिर के बन जाने से बहुत खुश हैं और गर्व से कहते हैं कि यहां पचास कोस तक शबरी माता का दूसरा कोई और मंदिर नहीं है । ऐसे ही सपेरा जाति में ‘ गोगा पीर का मंदिर बनाने की चाह है जो सांपों के देवता माने जाते हैं , परंतु इस प्रयोजन के लिए उनके पास भी आर्थिक- सामाजिक शसकि का अभाव है । वे कहते हैं कि अगले चुनाव में नेताओं के समक्ष वे अपनी यह मांग रखेंगे ।
देश के तवतभन्नन् हिससों में दलितों की अनेक जातियां हैं और सभी जातियों के अपने-अपने देवता और नायक हैं । इन देवताओं के मंदिर अथवा परिसर विकसित होने से उनमें आतमसममान का भाव तो बढ़ता ही है , उनहें अपना धार्मिक सथान भी मिलता है , जहां वे अपने लोगों के बीच अपने तौर-तरीकों के पूजा- पाठ कर सकते हैं । बिहार में दुसाध जाति एक प्रभावी दलित जाति है । उनकी बससियों के पास आपको अनेक देवी-देवताओं के मंदिर तो दिखेंगें ही , वहीं चूहड़मल , सहलेस , राहु एवं गोरेया देव के मंदिर भी मिलेंगे । मैं सिर्फ यह नहीं कहना चाह रहा हूं कि प्रतयेक दलित जाति के जातीय देवताओं के मंदिर हों । मेरा बस इतना कहना है कि अनय सामाजिक समूहों की तरह दलित एवं वंचित सामाजिक समूहों में भी समाज में धार्मिक सथान की चाह रही है और मौजूदा दौर में यह और बढ़ रही है । उनहें भी धार्मिक बराबरी एवं अपने दुख-दर्द का बयान करने के लिए देवसथान चाहिए । वे भी हिंदू धर्म के अनेक देवी-देवताओं में जिसे चाहें , उसे पूजने की छूर् चाहते हैं । वे अपनी जाति से जुड़े कुलदेवता का भी मंदिर चाहते हैं । कुछ बौद के रूप में रहना चाहते हैं , कुछ रविदासी , कबीरपंथी एवं शिवनारायणी के रूप में अपनी धार्मिक अससमिा चाहते हैं । कई के जातीय देवता उनकी अससमिाओं के महतवपूर्ण प्रतीक चिह्न हैं । उनके लिए सममातनि जीवन का तातपय्ण रोजी-रोर्ी की बेहतरी के साथ साथ ‘ धार्मिक सथान की प्रासपि भी है और हमें उनकी यह आकांक्षा समझनी होगी । �
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