May-June 2024_DA | Page 40

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बराबरी के सवाल

बद्ररी नारायण vk

ज की राजनीतिक गोलबंदी एवं सत्ा की राजनीति के केंद्रीय शबद हैं ‘ अससमिा की चाह और ‘ विकास । जब ‘ अससमिा की चाह पर चर्चा होती है तो सामाजिक एवं राजनीतिक अससमिा की बात होती है , परंतु किसी भी सामाजिक समूह के ‘ अससमिा निर्माण की प्रतरिया में ‘ धर्म की कया भूमिका होती है , इस पर हम न तो संवेदनशील हैं और न ही सजग । जब भी राजनीतिक दल दलित , वनवासी एवं वंचित समूहों की अससमिा को समझकर उस पर अपनी राजनीतिक कार्ययोजना बनाना चाहते हैं तो उसमें उनके भीतर बैठी ‘ धार्मिक सममान की चाह को नजरअंदाज कर देते हैं । दलित एवं उपेक्षित सामाजिक समूहों पर शोध करते हुए हमने पाया है कि उनमें ‘ धार्मिक अससमिा एवं सममान की चाह सामाजिक सममान की चाह में ही अंतर्निहित है । उनके लिए समाज में सममान का मतलब धार्मिक सथान ( सपेस ) में बराबर हिससेदारी भी है । ऐसा नहीं है कि धार्मिक सथान की चाह आज जगी है और पहले नहीं थी , बसलक यह तब से ही पैदा हुई जबसे उनमें असपृशयिा के एहसास का उद्भव हुआ । असपृशयिा से मुसकि का संबंध उनके लिए रोर्ी-पानी एवं हिंदू धर्म में बराबरी की चाह से ही जुड़ा रहा है । शायद इसीलिए डॉ . आंबेडकर ने महाड़ सतयाग्रिह एवं मंदिरों में प्रवेश जैसे आंदोलन शुरू किए थे । न केवल आंबेडकर ने , बसलक आर्य समाज एवं आज के अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलनों ने भी दलितों के लिए मंदिर प्रवेश जैसे आंदोलनों की वकालत की । इसी रिम में तरुण विजय के नेतृतव ने उत्िाखंड के एक मंदिर में दलित प्रवेश आंदोलन को भी देखा जा सकता है ।
महातमा गांधी ने दलितों में निहित हिंदू धर्म
में उनके सममान को समझा था और इसके लिए अनेक प्रयास भी किए थे । उसके बाद आर्य समाज के प्रयासों का एक केंद्रीय ततव दलित , असपृशय एवं वंचितों की धार्मिक अससमिा का निर्माण कर उनहें वैदिक संस्कृति से जोड़ते हुए सममान दिलाना था । 1920 के आसपास सवामी अछूतानंद का आदि हिंदू आंदोलन दलितों को धार्मिक अससमिा प्रदान करने का ही प्रयास था । हमें यह समझना होगा कि ऐसे समूहों को रोर्ी के साथ ही धार्मिक सथान भी चाहिए । ऐसा धार्मिक सथान जहां उनहें बराबरी का एहसास हो , दैनंदिन जीवन के संघर्षों और र्कराहर् को झेलने के लिए आधयासतमक एहसास तो हो ही , बराबरी पर तर्के हुए ऐसे भाईचारे का भी एहसास हो जो उनहें दैनंदिन जीवन एवं समाज में नहीं दिखाई पड़ता । उनहें ऐसे धार्मिक सथान की जरूरत है , जहां वे अपने दुखों से उबरने की कामना करते हुए अपने देवता के समक्ष रो सकें । कितना दुर्भागय है कि हमने समाज में उनहें ‘ रोने का सथान ' भी नहीं दिया । अगर कभी आप बनारस में लगने वाले रविदास मेले में जाएं तो रविदास की मूर्ति के सामने लाइन में लगे तमाम महिलाएं-पुरुर् अश्रुपूर्ण नेत्ों से रविदासजी की मूर्ति पर सिककों से लेकर सोना फेंकते दिखाई देंगे । दलितों में जो समूह आर्थिक रूप से मजबूत भी हो गया है , उनहें भी धार्मिक सथान एवं सममान की चाह है । रविदास मेले में आपको रोर्ी-पयाज खाते गरीब के साथ-साथ कोर्-र्ाई पहने ऑसट्ेतलया के एनआरआई भी खासी तादाद में मिल जाएंगे ।
कबीर पंथ , रविदास पंथ , शिवनारायण पंथ ऐसे ही ‘ धार्मिक सथान हैं , जिनहें उपेक्षित समूहों ने अपने ‘ दुख की पुकार के लिए , बराबरी की चाह एवं सामाजिक सममान की आकांक्षा से विकसित किया है । दलितों में छिपी इसी चाह
को समझते हुए कांशीराम और मायावती ने दलित जनता को अपने साथ जोड़ने के लिए दलित समूहों के संतों और गुरुओं को सममान देने की रणनीति पर लंबे समय तक कार्य किया । कबीर , रविदास जैसे संतों की मूर्तियां बनवाईं और उनके ‘ समृति सथल विकसित किए । शायद इतना सथान भी दलित समाज के लिए काफी नहीं था । उनहें और अधिक सथान चाहिए था ।
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