May-June 2024_DA | Page 39

इजाज़त नहीं दी गयी , खासकर उस ससथति में जब पति पर्यापि रूप से कमा रहा हो । इससे पता चलता है कि भारत ने अपने आपको आर्थिक रूप से तो विकसित किया है , लेकिन सामाजिक मोचदे पर अभी वह बहुत पीछे है ।
शोध के दौरान लिए गए साक्षातकाि में 50 प्रतिशत से अधिक लोगों ने कहा कि महिलाओं को अपने घरों के बाहर काम नहीं करना चाहिए । उत्ि प्रदेश को छोड़कर अनय जगहों पर शहरी और ग्ामीण इलाकों की तुलना में कोई बड़ा अंतर नहीं पाया गया , जहाँ 60 प्रतिशत से थोड़ा अधिक दर्ज़ किया गया । अधययन में कहा गया है कि घूँघर् करने वाली महिलाओं को खुद से संबंधित मामलों में उनहें कुछ भी कहने का हक़ नहीं मिलता है । साक्षातकाि में लगभग सभी घरों में महिलाओं
की ऐसी ही ससथति है । 18 से 60 वर््ण की आयु में , ग्ामीण और शहरी क्षेत्ों में , राजसथान में घूंघर् प्रथा निभाने वाली महिलाओं का सबसे अधिक प्रतिशत ( 98 %) है । घूंघर् प्रथा निभाने वाली महिलाओं का प्रतिशत दिलली में कम था ।
सबसे आम प्रथा जो युगों से नहीं बदली है और जिसका सीधे महिला के सवास्थय पर असर पड़ रहा है वह है खाना । यह बताया गया कि 60 प्रतिशत महिलायें उत्ि प्रदेश के ग्ामीण इलाकों में और दिलली में लगभग 33 प्रतिशत महिलायें बाद में खाना खाती हैं । इस शोध में , शोधकर्ताओं ने दलितों के खिलाफ स्पष्ट पूवा्णग्ह के दो रूपों पर निशानदेही की है । एक , असपृशयिा का आमतौर पर दलितों के खिलाफ इसिेमाल किया जा रहा है ; दूसरा , गैर-दलितों
द्ािा एक दलित परिवार में विवाह की पूर्ण असवीककृति थी और बाद में उनहोंने यह भी मांग की कि ऐसे विवाहों को होने से रोकने के लिए सरकार को कानून बनाना चाहिए ।
शोध के समबनध में डा . अमित थोरात कहते है कि यह विचार असपृशयिा पर पहले के अधययन से आया है । हम असपृशयिा सहित अनय कई चीजों की लोगों की धारणाएं जानना चाहते थे ... जब हमने पहले अधययन किया था , हमने सोचा था कि असपृशयिा के अभयास के लिए केवल 27 प्रतिशत लोग सहमत हैं I अधययन में पाया गया कि दलितों के खिलाफ असपृशयिा को प्रतिवादी या उनके परिवार के सदसयों ने माना था । महिला उत्िदाताओं ने साक्षातकाि में कहा था कि असपृशयिा का उनके परिवार में 39 से 66 प्रतिशत के बीच अभयास किया जाता है और पुरुर् उत्िदाताओं ने कहा कि यह उनके परिवारों में 21 से 50 प्रतिशत के बीच की सीमा पर है ।
यह अधययन उपयोगी अंिदृ ्णसष्र् देता है कि समाज बहुमत के महतवपूर्ण सामाजिक मुद्ों पर कैसे सोचता है और कैसे हम सामाजिक मामलों में एक लोकतांतत्क दृसष्र्कोण लाने में सक्षम नहीं हुए हैं । डॉ अमित थोरात कहते हैं , " जाति और लिंग से संबंधित पारंपरिक विचारों में कमी की जानी चाहिए कयोंकि देश में जिस तरह की प्रगति होती है वह हमारे मन में विकास का विचार के बारे में गलत धारणा है या हम विकास को सिर्फ भौतिक लाभ और समृतद के समानरूप देखते हैं , लेकिन जैसा कि हम अंतरराष्ट्ीय सिि पर विकास के बारे पता लगाते हैं तो उसके तीन सिंभ हैं - आर्थिक , सामाजिक और माहौल । हम माहौल को सुधारने के पहलुओं पर तो धयान नहीं दे रहे हैं , भले ही हम आर्थिक रूप से आगे बढ़ने की पुरजोर कोशिश में हो , ऐसा लगता है कि सामाजिक रूप से हमने प्रगति नहीं की है । इसलिए असपृशयिा की प्रथा पर प्रतिबंध लगाने और अंतर जाति विवाहों का समर्थन करने वाले कानूनों को लागू किया जाए , जिससे कि वांछित परिणाम मिल सके और भारत में सामाजिक समरसता को पूरी तरह से कायम किया जा सकेI
( साभार ) ebZ & twu 2024 39