May-June 2024_DA | Page 38

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पूववागृह की मानसिकता

परी . जरी आंबेडकर

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रत में महिलाओं और दलितों के विरुद सामाजिक पूवा्णग्हों को समझने के लिए एक अधययन आर्थिक और राजनीतिक सापिातहक ( ईपीडबलयू ) में प्रकाशित हुआ । यह अधययन दलितों के प्रति स्पष्ट पूवा्णग्ह की खोज में था - " विशवास और वयवहार में जिसे लोग खुलेआम और आसानी से सवीकार करते हैं वह दलित समूहों में लोगों की निम्न सामाजिक ससथति को स्पष्ट करते हैं ।" इस अलग ढंग के अधयन को डायना कोफी , पायल
हाथी , निधि खुराना और अमित थोरार् ने अंजाम दिया गया है जो रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ़ कोसमसय्नेट इकोनिमिकस ( आर . आई . सी . ई .) से संबद हैं । आंकड़ों को र्ेलीरोतनक सवदेक्षण के ज़रिए एकतत्ि किया गया , जिसमें चार सथान- दिलली , मुंबई , राजसथान और उत्ि प्रदेश शामिल थे , इस सवदेक्षण के लिए 8,065 लोगों का नमूना लिया गया । यह शोध उन लोगों के लिए एक आशचय्ण के रूप में उभरता है जो ये सोचते हैं कि जाति और लिंग भेदभाव अतीत की चीजें हैं और अब ऐसा कुछ नहीं हैं ।
शोधकर्ताओं ने अपने अधययन में पाया जिस असपृशयिा की कुप्रथा को 1950 में भारतीय संविधान को अपनाने के साथ प्रतिबंधित कर दिया गया था वह समाज में न सिर्फ आज भी प्रचलित है , बसलक आम वयवहार में है I महिलाओं द्ािा घूंघर् डालने की प्रथा ( साड़ी या दुपट्ा के साथ अपने सिर या चेहरे को कवर करने वाली महिलायें ) अभी भी मौजूद है । अधययन में यह भी पाया गया कि पचास प्रतिशत लोगों ने अपने घरों के बाहर काम करने वाली महिलाओं को अनुमति नहीं दी या उनहें इसकी
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