May-June 2024_DA | Page 37

यथार्थ , जीवन संघर््ण और उसकी चेतना की आंच पर तपकर पारमपरिक मानयिाओं के विरुद विद्रोह और नकार के रूप में अभिवयकि होता है । यही उसका केनद्रीय भाव भी है , जो आरिोश के रूप में दिखाई देता है कयोंकि दलित तवर्यक कविता की निजता जब सामाजिकता में परिवर्तित होती है , तो उसके आंतरिक और बाहय द्ंद् उसे संश्लिष्टता प्रदान करते हैं । यहां यह कहना भी
अतिशयोसकि नहीं होगा कि हिनदी आलोचक अपने इर्द-गिर्द रचे – बसे संसकारिक मापदंडो , जिसे वह सौनदय्णबोध कहता है , से इतर देखने का अभयसि नहीं है । इसी लिए उसे दलित तवर्यक कविता कभी अपरिपकव लगती है , तो कभी सपार् बयानी , तो कभी बचकानी भी । दलित तवर्यक कविता की अंत : धारा और उसकी वसिुतनष्ठिा को पकड़ने की वह कोशिश नहीं करना चाहता है । यह कार्य उसे उबाऊ लगता है । इसीलिए वह दलित कविता से र्कराने के बजाए बचकर निकल जाने में ही अपनी पूरी शसकि लगा देता है ।
दलित चेतना दलित तवर्यक कविता को एक अलग और तवतशष्र् आयाम देती है । यह चेतना उसे डा . आंबेडकर जीवन – दर्शन और जीवन संघर््ण से मिली है । यह एक मानसिक प्रतरिया है , जो इर्द-गिर्द फैले सामाजिक , धार्मिक , राजनीतिक , शैक्षणिक , आर्थिक छदमों से सावधान
करती है । यह चेतना संघर््णिि दलित जीवन के उस अंधेरे से बाहर आने की चेतना है जो हजारों साल से दलित को मनुष्य होने से दूर करते रहने में ही अपनी श्रेष्ठता मानता रहा है । इसी लिए एक दलित तवर्यक कवि की चेतना और एक तथाकथित उच्चवणटीय कवि की चेतना में गहरा अंतर दिखाई देता है । सामाजिक जीवन में घतर्ि होने वाली प्रतयेक घर्ना से मनुष्य प्रभावित होता है । वहीं से उसके संसकाि जनम लेते हैं और उसकी वैचारिकता , दार्शनिकता , सामाजिकता , सातहसतयक समझ प्रभावित होती हैं । कोई भी वयसकि अपने परिवेश से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है । इसी लिए कवि की चेतना सामाजिक चेतना का ही प्रतिबिमब बन कर उभरती है । जो उसकी कविताओं में मूर्त रूप में प्रकर् होती है । इसी लिए दलित जीवन पर लिखी गयी रचनाएं जब एक दलित लिखता है और एक गैर दलित लिखता है तो दोनों की सामाजिक चेतना की भिन्नता साफ – साफ दिखाई देती है । जिसे अनदेखा करना हिनदी आलोचक की विवशता है । यह जरूरी हो जाता है कि दलित तवर्यक कविता को पढते समय दलित – जीवन की उन विसंगतियों , प्रताडनाओं , भेदभाव , असमानताओं को धयान में रखा जाये , तभी दलित तवर्यक कविता के साथ साधारणीकरण की ससथति उतपन्न होगी ।
हिनदी के कुछ विद्ानों , आलोचकों को लगता है कि दलित का जीवन बदल चुका है । लेकिन दलित कवि और साहितयकार अभी भी अतीत का रोना रो रहे हैं और उनकी अभिवयसकि आज भी वहीं फुले , अमबेिकर , पेरियार के समय में ही अर्की हुई है । यह एक अजीब तरह का आरोप है । आज भी दलित उसी पुरातन पंथी जीवन को भोग रहा है जो अतीत ने उसे दिया था । हां , चनद लोग जो गांव से निकल शहरों और महानगरों में आए , कुछ अचछी नौकरियां पाकर उस ससथति से बाहर निकल आये हैं , शायद उनहीं चनद लोगों को देख कर विद्ानों ने अपनी राय बनाली है कि दलितों के जीवन में अंतर आ चुका है । लेकिन वासितवकता इससे कोसों दूर है । महानगरों में रहने वालों की वासितवक ससथति वैसी नहीं है जैसी दिखाई दे
रही है । यदि ससथतियां बदली होती तो दलितों को अपनी आईडेंर्ीर्ी छिपा कर महानगरों की आवासीय कालोनियों में कयों रहना पडता । वे भी दूसरों की तरह सवातभमान से जीते , लेकिन ऎसा नहीं हुआ । समाज उनहें मानयिा देने के लिए आज भी तैयार नहीं है ।
शहरों और महानगरों से बाहर ग्ामीण क्षेत्ों में दिन रात खेतों , खलिहानों , कारखानों में पसीना बहाता दलित जब थका-मांदा घर लौर्िा है , तो उसके पास जो है वह इतना कम है कि वह अपने पास कया जोड़े और कया घर्ाये , कि ससथति में होता है । ऊपर से सामाजिक विद्वेष उसकी रही सही उममीदों पर पानी फेर देता है । इसी लिए अभावग्सि जीवन से उपजी विकलताओं , तजतजतवर्ायें दलित कवि की चेतना को संघर््ण के लिए उतप्रेरित करती हैं , जो उसकी कविता का सथायी भाव बनकर उभरता है । और दलित तवर्यक कविता में दलित जीवन और उसकी विवशतायें बार-बार आती हैं । इसी लिए कवि का ‘ मैं ‘ हम ’ बनकर अपनी वयसकिगत , निजी चेतना को सामाजिक चेतना में बदल देता है । साथ ही मानवीय मूलयों को गहन अनुभूति के साथ शबदों में ढालने की प्रवृतत् भी उसकी पहचान बनती है ।
दलित तवर्यक कविता को मधयकालीन संतों से जोड़कर देखने की भी प्रवृति इधर दिखाई देती है । जिस पर गंभीर और िर्सथ विवेचना की आवशयकता है । संत कावय की अधयासतमकता , सामाजिकता और उनके जीवन मूलयों की प्रासंगिकता के साथ डा . आंबेडकर के मुसकि – संघर््ण से उपजे साहितय की अंत : चेतना का विश्लेषण करते हुए ही किसी तनष्कर््ण पर पहुंचा जा सकता है । जो समकालीन सामाजिक संदभयो के लिए जरूरी लगता है , जिस पर गहन चिंतन की आवशयकता है । दलित तवर्यक कविता में आरिोश , संघर््ण , नकार , विद्रोह , अतीत की सथातपि मानयिाओं से है । वर्तमान के छदम से है , लेकिन मुखय लक्य जीवन में घृणा की जगह प्रेम , समता , बनधुिा , मानवीय मूलयों का संचार करना ही दलित तवर्यक कविता का लक्य है । �
ebZ & twu 2024 37