May-June 2024_DA | Page 36

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दलित विषयक कविता का लक्ष्य

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मकालीन कविता ने अपना एक तवतशष्र् मुकाम हासिल किया है जिसे देख कर यह कहा जा सकता है कि भारतीय परिदृशय पर दलित कविता ने अपनी उपससथति दर्ज करके सामाजिक संवेदना में बदलाव की प्रतरिया तेज की है । दलित तवर्यक कविता के इस सवरूप ने तनसशचि ही भारतीय मानस की सोच को बदला है । दलित तवर्यक कविता आननद या रसासवादन की चीज नहीं है । बसलक कविता के माधयम से मानवीय पक्षों को उजागर करते हुए मनुष्यता के सरोकारों और मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होना है । मनुष्य और प्रककृति , भार्ा और संवेदना का गहरा रिशिा है , जिसे दलित तवर्यक कविता ने अपने गहरे सरोकारों के साथ जोडा है ।
दलित तवर्यक कविता ने अपनी एक विकास-यात्ा तय की है , जिसमें वैचारिकता , जीवन-संघर््ण , विद्रोह , आरिोश , नकार , प्रेम , सांस्कृतिक छदम , राजनीतिक प्रपंच , वर्ण- विद्वेष , जाति के सवाल , सातहसतयक छल आदि तवर्य बार – बार दसिक देते हैं , जो दलित कविता की विकास – यात्ा के विभिन्न पड़ाव से होकर गुजरते हैं । दलित तवर्यक कवि के मूल में मनुष्य होता है , तो वह उतपीड़न और असमानता के प्रति अपना विरोध दर्ज करेगा ही । जिसमें आरिोश आना सवाभाविक परिणिति है । जो दलित कवि की अभिवयसकि को यथार्थ के निकर् ले जाती है । उसके अपने अंतर्विरोध भी हैं , जो कविता में छिपते नहीं हैं , बसलक सवाभाविक रूप से अभिवयकि होते हैं । दलित तवर्यक कविता का जो प्रभाव और उसकी उतपतत् है , जो आज भी जीवन पर लगातार आरिमण कर रही है ।
इसी लिए कहा जाता है कि दलित तवर्यक कविता मानवीय मूलयों और मनुष्य की अससमिा के साथ खडी है ।
जिस तवर्मतामूलक समाज में एक दलित संघर््णिि हैं , वहां मनुष्य की मनुष्यता की बात करना अकलपनीय लगता है । इसी लिए सामाजिकता में समताभाव को मानवीय पक्ष में परिवर्तित करना दलित कविता की आंतरिक अनुभूति है , जिसे अभिवयकि करने में गहन वेदना से गुजरना पडता है । भारतीय जीवन का सांस्कृतिक पक्ष दलित को उसके भीतर हीनता बोध पैदा करते रहने में ही अपना श्रेष्ठतव पाता है । लेकिन एक दलित के लिए यह श्रेष्ठतव दासता और गुलामी का प्रतीक है । जिसके लिए हर पल दलित को अपने ‘ सव ’ की ही नहीं समूचे दलित समाज की पीड़ादायक ससथतियों से गुजरना पड़ता है ।
हिनदी आलोचक कविता को जिस रूप में भी ग्हण करें और सातहसतयक मापदंडों से उसकी वयाखया करें , लेकिन दलित जीवन की त्ासद ससथतियां उसे संसपश्ण किये बगैर ही निकल जाती हैं । इसी लिए वह आलोचक अपनी बौतदकता के छदम में दलित तवर्यक कविता पर कुछ ऎसे आरोपण करता है कि दलित तवर्यक कविता में भर्काव की गुंजाईश बनने की ससथतियां उतपन्न होने की संभावनायें दिखाई देने लगती हैं । इसीलिए दलित तवर्यक कविता को डा . आंबेडकर के जीवन-दर्शन , अतीत की भयावहता और बुद के मानवीय दर्शन को हर पल सामने रखने की जरूरत पडती है , जिसके बगैर दलित तवर्यक कविता का सामाजिक पक्ष कमजोर पडने लगता है ।
समाज में रचा- बसा ‘ विद्वेष ’ रूप बदल – बदल कर झांसा देता है । दलित तवर्यक कवि के सामने ऎसी भयावह ससथतियां निर्मित करने के अनेक प्रमाण हर रोज सामने आते हैं , जिनके बीच अपना रासिा ढूंढना आसान नहीं होता है । सभयिा , संस्कृति के घिनौने र्ड़यंत् लुभावने शबदों से भरमाने का काम करते हैं । जहां नैतिकता , अनैतिकता और जीवन मूलयों के बीच फर्क करना मुसशकल हो जाता है , फिर भी नाउममीदी नहीं है । एक दलित कवि की यही कोशिश होती है कि इस भयावह त्ासदी से मनुष्य सविंत् होकर प्रेम और भाईचारे की ओर कदम बढाये , जिसका अभाव हजारों साल से साहितय और समाज में दिखाई देता रहा है ।
दलित तवर्यक कविता निजता से जयादा सामाजिकता को महत्ा देती है । इसी लिए दलित तवर्यक कविता का समूचा संघर््ण सामाजिकता के लिए है । दलित तवर्यक कविता का सामाजिक
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