May-June 2024_DA | Page 31

सभी धमषों में सवीकार्य शाशवि जीवन मूलय का ततव है । धमम का पालन किसी अलौकिक सत्ा में विशवास पर आधारित नहीं है , यह वयसकि की अपनी संभावनाओं , सदगुणों एवं सच्ची सविंत्िा प्रासपि की अनुभव उपलसबध का पथ है । ‘ भगवान बुद और उनका धमम ’ ग्ंथ में डा . बाबासाहब आंबेडकर लिखते हैं कि जीवन की पतवत्िा बनाए रखना ही धमम है , अत : धमम का संबंध नैतिकता से है , किसी धर्म या मजहब से नहीं । नैतिकता समाज या संघ का अपरिहार्य आधार है । जहां एक वयसकि का संबंध दूसरे से है , वहां नैतिकता का पालन आवशयक है । बाबासाहब का मानना है कि जब हम किसी समुदाय या समाज में रहते हैं , तो जीवन के मापदंड एवं आदशषों में समानता होनी चाहिए । यदि यह समानता नहीं हो , तो नैतिकता में पृथकता की भावना होती है और समूह जीवन खतरे में पड़ जाता है । यही चिंतन है , जिसके आधार पर उनका तनष्कर््ण था कि हिंदू धर्म ने दलित वर्ग को यदि शसत् धारण
करने की सविंत्िा दी होती , तो यह देश कभी परतंत् न हुआ होता ।
बात शसत् की ही नहीं , शासत्ों की भी है , जिनके ज्ान से वंचित कर हमने एक बड़े हिससे को अपनी भौतिक एवं आधयासतमक संपदाओं से वंचित कर दिया और आज यह सामाजिक तनाव का एक प्रमुख कारण बन गया है । डा । आंबेडकर जाति वयवसथा का जड़ से उनमूलन चाहते थे , कयोंकि उनकी तीक्ण बुतद देख पा रही थी कि हमने कर्म सिदांि को , जो वयसकि के मूलयांकन एवं प्रगति का मार्गदर्शक है , भागयवाद , अकर्मणयिा और शोर्णकारी समाज का पोर्क बना दिया है । उनकी सामाजिक नयाय की दृसष्र् यह मांग करती है कि मनुष्य के रूप में जीवन जीने का गरिमापूर्ण अधिकार समाज के हर वर्ग को समान रूप से मिलना चाहिए और यह सिर्फ राजनीतिक सविंत्िा एवं लोकतंत् से प्रापि नहीं हो सकता । इसके लिए आर्थिक व सामाजिक लोकतंत् भी चाहिए । एक वयसकि एक वोर् की राजनीतिक बराबरी होने पर भी सामाजिक एवं आर्थिक तवर्मता लोकतंत् की प्रतरिया को दूतर्ि करती है , इसलिए आर्थिक समानता एवं सामाजिक भेदभाव विहीन जनतांतत्क मूलयों के प्रति वे प्रतिबदिा का आग्ह करते हैं । डा . आंबेडकर की लोकतांतत्क मूलयों में अर्ूर् आसथा थी । वह कहते थे ‘ जिस शासन प्रणाली से रकिपात किए बिना लोगों के आर्थिक व सामाजिक जीवन में रिांतिकारी परिवर्तन लाया जाता है , वह लोकतंत् हैI ’ वह मनुष्य के दुखों की समासपि सिर्फ भौतिक व आर्थिक शसकियों के आधिपतय से नहीं सवीकारते थे । वह माकस्णवादियों से कहते हैं- मनुष्य केवल रोर्ी के सहारे जिंदा नहीं रहता , उसके पास मन है , उस मन को विचारों की खाद चाहिए । धर्म मनुष्य के मन में आशा का निर्माण करता है । उसे काम करने के लिए प्रवृत् करता है । उनके अनुसार धर्म सिर्फ पुसिकों का वाचन या पराप्राककृतिक में विशवास नहीं है , यह धमम है , नीति है , जो सभी के लिए ज्ान के द्ाि खोलता है , जिसमें कोई भेदभाव या संकुचितता नहीं है ।
डा . आंबेडकर ज्ान आधारित समाज का निर्माण चाहते थे , इसलिए उनका आग्ह था शिक्षित बनो , संगठित हो और संघर््ण करो । इस संघर््ण में धमम का अनुसरण उनकी निष्ठा थी । बाबासाहब भगवान बुद के जिस धमम पथ को सवीकारते हैं , उसमें प्रज्ा या विचार-धमम महतवपूर्ण है , परंतु केवल ज्ान खतरनाक है , यह शील के बिना अधूरा है , इसलिए शील या आचरण-धमम भी महतवपूर्ण माना है । प्रज्ा , शील , करुणा और मैत्ी भावों से संचालित समाज ही समरस समाज हो सकता है , जो सामाजिक रिांति का नैतिक आदर्श है । यह आदर्श बाबासाहब ने सभी को दिया है । राष्ट्तनमा्णिाओं की अग्णी पंसकि में प्रतिष्ठित बाबासाहब डा । आंबेडकर अर्थशासत्ी , नयायविद् , राजनेता और समाज सुधारक थे । उनहोंने भारतीय संविधान की रचना-प्रतरिया की अगुवाई की और देश में दलित समुदाय के साथ होनेवाले सामाजिक भेदभाव को तमर्ाने और ससत्यों व श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए वह जीवनपययंत सतरिय रहे ।
उनहोंने अमेरिका के कोलंबिया विशवतवद्ालय और ब्रिटेन के लंदन सकूल ऑफ इकोनॉमिकस से पीIएचडी और डीIएसIसी । की उपाधियां प्रापि कीं । ब्रिटेन में ही उनहोंने कानून की पढ़ाई भी की । शिक्षा पूरी कर वह मुंबई में अर्थशासत् के प्राधयापक बने और कुछ समय के बाद सापिातहक पतत्का मूकनायक का प्रकाशन शुरू किया । शिक्षण के अलावा उनका संबंध वकालत के पेशे से भी रहा था । औपनिवेशिक शासन के दौरान सामाजिक कार्यकर्ता और प्रशासनिक प्रतिनिधि तथा सविंत् भारत के प्रथम विधि मंत्ी के तौर पर उनहोंने समाज के वंचित वगषों को अधिकार-संपन्न करने के लिए अनेक पहलें कीं । समाज , धर्म , अर्थवयवसथा , कानून आदि तवर्यों पर उनकी कालजयी रचनाएं आज भी देश को दिशा देने में महतवपूर्ण भूमिका निभा रही हैं । आधुनिक भारत के निर्माण में उनकी अप्रतिम भूमिका इस बात से तसद होती है कि उनके उललेख के बिना कोई भी समकालीन चर्चा पूरी नहीं हो सकती है । �
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