May-June 2024_DA | Page 29

हमारे सपने साझा हैं , और यह सब है इसलिए हम एक राष्ट् हैं । राष्ट् की यह परिकलपना बाबासाहब ने यूरोपीय विद्ान अनदेस्ट रेनॉन से ली है , जिनका 1818 का प्रतसद वकिवय ‘ ह्वाट इज नेशन ’ आज भी सामयिक दसिावेज है ।
संविधान सभा में पूछे गए तमाम सवालों का जवाब देने के लिए जब बाबासाहब 25 नवंबर , 1949 को खड़े होते हैं , तो वह इस बात को रेखांकित करते हैं कि भारत आजाद हो चुका है , लेकिन उसका एक राष्ट् बनना अभी बाकी है । बाबासाहब कहते हैं कि ‘ भारत एक बनता हुआ राष्ट् है । अगर भारत को एक राष्ट् बनना है , तो सबसे पहले इस वासितवकता से रूबरू होना आवशयक है कि हम सब मानें कि जमीन
के एक र्ुकड़े पर कुछ या अनेक लोगों के साथ रहने भर से राष्ट् नहीं बन जाता । राष्ट् निर्माण में वयसकियों का मैं से हम बन जाना बहुत महतवपूर्ण होता हैI ’
वह चेतावनी भी देते हैं कि हजारों जातियों में बंर्े भारतीय समाज का एक राष्ट् बन पाना आसान नहीं होगा । सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में घनघोर असमानता और कड़वाहर् के रहते यह काम मुमकिन नहीं है । अपने बहुचर्चित , लेकिन कभी न दिए गए भार्ण ‘ एनिहिलेशन ऑफ कास्ट ’ में बाबासाहब जाति को राष्ट् विरोधी बताते हैं और इसके विनाश के महतव को रेखांकित करते हैं । बाबासाहेब की संकलपना का राष्ट् एक आधुनिक विचार है । वह
सविंत्िा , समानता और बंधुतव की बात करते हैं , लेकिन वह इसे पसशचमी विचार नहीं मानते । वह इन विचारों को फ्ांतससी रिांति से न लेकर , बुद की शिक्षा या बौद परंपरा से लेते हैं । संसदीय प्रणालियों को भी वे बौद भिक्षु संघों की परंपरा से लेते हैं ।
सविंत्िा और समानता जैसे विचारों की सथापना संविधान में नियम कानूनों के जरिए की गई है । इन दो विचारों को मूल अधिकारों के अधयाय में शामिल करके इनके महतव को रेखांकित भी किया गया है । लेकिन इन दोनों से महतवपूर्ण या बराबर महतवपूर्ण है बंधुतव का विचार । कया कोई कानून या संविधान दो या अधिक लोगों को भाईचारे के साथ रहना सिखा सकता है ? कया कोई कानून मजबूर कर सकता है कि हम दूसरे नागरिकों के सुख और दुख में साझीदार बनें और साझा सपने देखें ? कया इस देश में दलित उतपीड़न पर पूरा देश दुखी होता है ? कया मुसलमानों या ईसाइयों पर होने वाले हमलों के खिलाफ पूरा देश एकजुर् होता है ?
कया आदिवासियों की जमीन का जबरन अतधग्हण राष्ट्ीय चिंता का कारण हैं ? दुख के क्षणों में अगर नागरिकों में साझापन नहीं है , तो जमीन के एक र्ुकड़े पर बसे होने और एक झंडे को जिंदाबाद कहने के बावजूद हम लोगों का एक राष्ट् बनना अभी बाकी है । राष्ट् बनने के लिए यह भी आवशयक है कि हम अतीत की कड़वाहर् को भूलना सीखें । अमूमन किसी भी बड़े राष्ट् के निर्माण के रिम में कई अप्रिय घर्नाएं होती हैं , जिनमें कई की शकल हिंसक होती है और वे समृतियां लोगों में साझापन पैदा करने में बाधक होती हैं । इसलिए जरूरी है कि खासकर विजेता समूह , उन घर्नाओं को भूलने की कोशिश करे ।
राष्ट् जब लोगों की सामूहिक चेतना में है , तभी राष्ट् है । बाबासाहब चाहते थे कि भारत के लोग , तमाम अनय पहचानों से ऊपर , खुद को सिर्फ भारतीय मानें । राष्ट्ीय एकता ऐसे सथातपि होगी । वर्तमान विवादों के आलोक में , बाबासाहब के राष्ट् संबंधी विचारों को दोबारा पढ़े जाने और आतमसात किये जाने की जरूरत है । बाबासाहब
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