समाज
पन््चिमी मवचिार नहीं मानते । वह इन मवचिारों को फ्ांमससी कांमत से न लेकर, बुद्ध की शिक्ा ्या बौद्ध परंपरा से लेते हैं । संसदी्य प्रणामल्यों को भी वह बौद्ध भिक्ु संघों की परंपरा से लेते हैं । सवतंरिता और समानता जैसे मवचिारों की स्ापना संविधान में मन्यम कानदूनों के जरिए की गई है । इन दो मवचिारों को मदूल अधिकारों के अध्या्य में शामिल करके इनके महतव को रेखांकित भी मक्या ग्या है । लेकिन इन दोनों से महतवपदूणता ्या बराबर महतवपदूणता है बंधुतव का मवचिार ।
क्या कोई कानदून ्या संविधान-दो ्या अधिक लोगों को भाईचिारे के साथ रहना सिखा सकता है? क्या कोई कानदून मजबदूर कर सकता है कि हम ददूसरे नागरिकों के सुख और दुख में साझीदार बनें और साझा सपने देखें? क्या इस देश में दलित उतपीड़न पर पदूरा देश दुखी होता है? क्या आदिवामस्यों की जमीन का जबरन अमधग्हण राष्ट्रीय मचिंता का कारण हैं? दुख के क्णों में अगर नागरिकों में साझापन नहीं है, तो जमीन के एक टुकड़े पर बसे होने और एक झंडे को जिंदाबाद कहने के बावजदूद हम लोगों का एक रा्ट्र बनना अभी बाकी है ।
रा्ट्र बनने के लिए ्यह भी आवश्यक है कि हम अतीत की कड़वाहट को भदूलना सीखें । अमदूमन किसी भी बड़े रा्ट्र के निर्माण के कम
में कई अमप्र्य घटनाएं होती हैं, जिनमें कई की शकल हिंसक होती है और वह स्मृतियां लोगों में साझापन पैदा करने में बाधक होती हैं । इसलिए जरूरी है कि खासकर विजेता समदूह, उन घटनाओं को भदूलने की कोशिश करे । रा्ट्र जब लोगों की सामदूमहक चिेतना में है, तभी रा्ट्र है । बाबा साहब चिाहते थे कि भारत के लोग, तमाम अत््य पहचिानों से ऊपर, खुद को सिर्फ भारती्य मानें. राष्ट्रीय एकता ऐसे स्ामपत होगी । वर्तमान विवादों के आलोक में, बाबा साहब के रा्ट्र संबंधी मवचिारों को दोबारा पढ़े जाने और आतमसात किए जाने की जरूरत है ।
बाबा साहब ने कहा था कि अनदूठे हैं भारत के रा्ट्रवादी और देशभकत भारत एक अनदूठा देश है । इसके रा्ट्रवादी एवं देशभकत भी अनदूठे हैं । भारत में एक देशभकत और रा्ट्रभकत वह व्यक्ति है जो अपने समान अत््य लोगों के साथ मनुष्य से कमतर व्यवहार होते हुए अपनी खुली आंखों से देखता है, लेकिन उसकी मानवता विरोध नहीं करती । उसे मालदूम है कि उन लोगों के अधिकार अकारण ही छीने जा रहे हैं, लेकिन उसमें मदद करने की सभ्य संवेदना नहीं जगती । उसे पता है कि लोगों के एक समदूह को सार्वजनिक जीवन से बाहर कर मद्या ग्या है, लेकिन उसके भीतर त््या्य और समानता का
बोध नहीं होता । मनुष्य और समाज को चिोटिल करनेवाले सैकड़ों निंदनी्य रिवाजों के प्रचिलन की उसे जानकारी है, लेकिन वह उसके भीतर घृणा का भाव पैदा नहीं करते हैं । देशभकत सिर्फ अपने और अपने वर्ग के लिए सत्ा का आकांक्ी होता है । मुझे प्रसन्ता है कि मैं देशभकतों के उस वर्ग में शामिल नहीं हदूं । मैं उस वर्ग में हदूं, जो लोकतंरि के पक् में खड़ा होता है और जो हर तरह के एकाधिकार को धवसत करने का आकांक्ी है. हमारा लक््य जीवन के हर क्ेरि ' राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक ' में ' एक व्यक्ति-एक मदूल्य ' के सिद्धांत को व्यवहार में उतारना है ।
19वीं सदी और 20वीं सदी के पहले दो दशकों तक हुए सामाजिक परिवर्तन की पृ्ठभदूमि में बाबा साहब डा. आंबेडकर का सार्वजनिक जीवन में प्रवेश भारती्य समाज में सामाजिक कांमत के मार्ग को मनणाता्यक मोड़ देनेवाला महतवपदूणता ऊर्जा स्ोत रहा है । डा. आंबेडकर प्रखर मचिंतक, कानदूनविद और सामाजिक त््या्य की लड़ाई के ्योद्धा मारि नहीं रहे, अपितु उनकी वैचिारिक दृन््ट में अत््या्य का प्रतिकार करने के साहस के साथ-साथ नैतिक पथ पर अमवचिल चिलने की प्रतिबद्धता भी दिखाई देती है, जो मदूल्यों की पहचिान ढूंढ़ते समाज को दिशा दिखाती है । भारती्य समाज में विविधता भी है और विषमता भी. विविधता सवाभाविक होती है, परंतु विषमता नैसर्गिक नहीं है, इसलिए इस पर मवचिार आवश्यक है ।
बाबा साहब के नैतिक साहस ने अपने समाज की विषमतामदूलक व्यवस्ा का मारि विरोध ही नहीं मक्या, उन्होंने इसके कारण, समाज और राष्ट्रीय एकता पर इसके दु्प्रभाव और सत्य, अहिंसा तथा मानवता के विरुद्ध इसके सवरूप को भी उजागर मक्या । आधुनिक भारत के निर्माणकर्ताओं में डा. आंबेडकर की समाज पुनरताचिना की दृन््ट को मारि वर्ण आधारित जाति व्यवस्ा के विरोध एवं अछूतोद्धार तक ही सीमित करके देखा जाता है, जो उनके साथ अत््या्य है । जाति व्यवस्ा का विरोध एवं जाति आधारित वैमनस्य,
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