lkfgR ;
दलित विषयक सरावहत्य करा विकरास
डॉ . श्ीिती तारा सिंह
सामाजिक वयिसथ् में दलित का अभिप्राय उन लोगों से है , जिनहें भारतीय
जनम , जाति या वर्णगत भेदभाव के कारण हजारों सालों से सामाजिक नय्य और मानव अधिकारों से वंचित रहना पड़ा है । शुद्रों की भी हालत कोई खास अचछी नहीं रही है , सवर्ण आज भी शुद्रों के साथ बै्ठकर खाने में या उसकी बिरादरी में शादी-बय्ह से कतराते हैं । यह विडंबना ही है कि समसि प्राणियों में एक ही तति के दर्शन करने वाला , वर्ण-वयिसथ् को गुण और कर्म के आधार पर निर्धारित करनेवाला समाज , इतना कट्र कैसे हो गया कि निम्न वर्ण या जाति में जनम लेने वालों को सब प्रकार के अवसरों से वंचित किया जाता रहा और इन सड़ी-गली सोच के लिए ’ मनुसमृवि ’ को जिममेदार ्ठहरा दिया गया । हमारे देश का लमबे अरसों तक गुलाम रहने का यह भी एक मुखय कारण रहा है । हमारे सििंत्ि् आनदोलन के पुराधाओं ने भारत को इस कलंक पूर्ण प्रथा से मुकि कराने का यथासाधय प्रयास किया । भारत के संविधान अनुचछेद 15 ( 2 बी ) के अंतर्गत यह प्रावधान रखा गया कि जाति के आधार पर , भारत के किसी भी नागरिक के साथ भेद-भाव नहीं किया जायगा ; लेकिन यह सब संविधान के पन्नों में सीमित रह गया । आज भी
सवर्ण के कुएं से दलितों का पानी लेना मना है । दलितों की बससियां , सिणयों से बिलकुल अलग होती है , जहां से सवर्ण गुजरने से आज भी बचने की कोशिश करता है ।
इसके अलावा लमबे समय तक , सामाजिक शोषण और दमन की शिकार रही , हरिजन और गिरिजन जातियों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध किया
गया , ताकि इनके लिए सामाजिक नय्य सुवरसशचि किया जा सके । उनके प्रयासों का परिणाम कुछ-कुछ तो अब दीखने लगे हैं , लेकिन पूर्णतया अभी दूर है । सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्ों में चली मानवाधिकारों की हवा ने दलित चेतना को प्रवाहित करने में बड़ा योगदान किया है । यही कारण है कि अब दलित विषयक साहितयकार परमपरागत कावय-श्सत् और
48 ebZ 2023