समाज भी समझे जिम्ेदारी
नि : संदेह राजय सरकारों एवं उनके पुलिस प्रशासन को इसके लिए और सजग रहना चाहिए कि दलित या किसी भी कमजोर , वंचित तबके के वयसकि के साथ किसी भी तरह का भेदभाव न हो , लेकिन इतनी ही जिममेदारी समाज की भी तो है । कय् जालौर अथवा बुलंदशहर में जो कुछ हुआ , उसे रोकने के लिए सबसे पहले
संबंधित गांव के असरदार लोगों को आगे नहीं आना चाहिए था ? आखिर कहां थे बल्क , पंचायत सदसय और प्रधान जी ? इसी तरह कय् उन लोगों को सक्रिय नहीं होना चाहिए था , जो हिंदू समाज की एका की बात करते हैं और इस पर जोर देते हैं कि दलित , आदिवासी आदि हिंदू समाज का अविभाजय अंग हैं ? सवाल यह भी है कि धर्मगुरु गांव-गांव जाकर इसके लिए कोई अलख कयों नहीं जगाते कि दलितों , आदिवासियों
के साथ वैसा वयिहार नहीं होना चाहिए , जैसा होता है और जो सभय समाज को शर्मिदा करने के साथ हिंदू समाज को कमजोर करने का काम करता है ?
हिन्ुओं की एकता पर आघात
समाज सुधार का काम केवल शासन- प्रशासन पर नहीं छोड़् जा सकता । यह काम समाज और विशेष रूप से सामाजिक एवं धार्मिक
नेताओं को भी करना होगा । इसलिए और भी , कयोंकि आजादी के बाद राजनीतिक दलों के एजेंडे से समाज सुधार बाहर हो गया है । आखिर हमारे घोषित-अघोषित शंकराचार्य और अनय धर्मगुरु करते कय् हैं ? कय् वे भी सरकारों के भरोसे हैं ? कय् उनहें नहीं पता कि दलितों की अनदेखी-उपेक्षा को रह-रहकर बयान करने वाली घटनाएं हिंदू समाज की एकता को क्षति पहुंचाने के साथ उन ततिों को बल भी प्रदान
करती हैं , जो यह शरारतपूर्ण अभियान छेड़े हुए हैं कि दलित-आदिवासी तो हिंदू हैं ही नहीं । यह एक खतरनाक अभियान है । यह एक हद तक सफल होता दिखता है और इसी कारण मीडिया के साथ अनय मंचों पर दलितों का उललेख इस तरह होने लगा है , जैसे वे हिंदू समाज का हिसस् ही न हों । इस अभियान के अलावा एक अनय अभियान दलित-मुससलम एका के नाम पर चल रहा है । यह भी वैसा ही खोखला-फजटी अभियान है , जैसा मुहममद अली जिन्ना ने बंगाल के नेता जोगेंद्र नाथ मंडल के साथ मिलकर चलाया था । जिन्ना के छल का शिकार जोगेंद्र नाथ मंडल तो हुए ही , जो शर्मिदा होकर कलकत्ता लौटे और गुमनामी में मर गए , बांगल्देश के करोड़ों दलित हिंदू आज भी हो रहे हैं ।
मानसिकता में बदलाव की आवश्यकता
दलितों के साथ दुवयनािहार की उन घटनाओं पर भी शासन-प्रशासन को क्ठघरे में खड़् करना राजनीतिक उद्ेशयों अथवा अनय किसी एजेंडे को पूरा करने में तो मददगार हो सकता है , जिनमें उनकी कोई भागीदारी अथवा गलती नहीं होती , लेकिन ऐसा करने से समाज को चेताने और उसे उसकी जिममेदारी का अहसास कराने का उद्ेशय कहीं पीछे छूट जाता है । जहां शासन-प्रशासन की गलती हो , वहां उसे क्ठघरे में खड़् ही किया जाए , लेकिन जहां गलती समाज की हो , वहां उसे भी इसका आभास कराया जाना आवशयक है । वासिि में यह काम केवल दलितों , आदिवासियों के साथ होने वाली घटनाओं पर ही नहीं , महिलाओं से छेड़छ्ड़ और दुषकमना के मामलों में भी होना चाहिए । इस तरह की घटनाएं पुलिस की सजगता के अभाव में कम , लोगों की उस मानसिकता के कारण अधिक होती हैं , जिसके तहत वे लड़वकयों-महिलाओं को नीची निगाह से देखते हैं । इस अपेक्षा में कोई हर्ज नहीं कि सरकारों को समाज सुधार के लिए और सक्रिय होना चाहिए , लेकिन समाज की गलती केवल शासन-प्रशासन के सिर मढ़रे से बात बनने वाली नहीं है । ( साभार )
ebZ 2023 47