यहां यह बताना भी उचित होगा कि हमारे देश में यद्वप संविधान को सिवोपरि मानकर राजनीति की जाती है , राजनीतिक दल और उनके नेता अकसर यह कहते सुने जाते हैं कि संविधान सिवोपरि है , परंतु यथार्थ में ससथवि दूसरी है । ऐसे कई काम इस देश में हो रहे हैं जो संविधान में कहीं उसललवखि नहीं हैं । इसके
उपरानि भी देश की राजनीति में वे इस प्रकार सथ्र प्रापि कर चुके हैं जैसे वे पूर्णतः संवैधानिक हों । जैसे राजनीतिक दलों के निर्माण की प्रक्रिया को आप लें । राजनीतिक दलों के निर्माण की प्रक्रिया का उललेख देश के संविधान के किसी प्रावधान या अनुचछेद में नहीं है । इस प्रकार राजनीतिक दलों का जनम भारत में अवैध संतान के रूप में होता है और फिर वे वैध संतान के रूप में संविधान के नाम पर खाते कमाते हैं ।
कहने का अभिप्राय है कि देश के राजनीतिक दल छुट्् भैंसे की भांति इसलिए आचरण करते हैं कि उनकी कोई संवैधानिक जिममेदारी नहीं
होती । ये देश में जातिवाद , संप्रदायवाद , क्षेत्ि्द , भाषावाद आदि को लेकर लोगों को भड़काने और उकसाने का काम करते रहते हैं । जब सत्ता में आ जाते हैं तो देश के संविधान को सिवोपरि बताने का नाटक करते हैं । यही कारण है कि देश में कई प्रकार की समसय्एं इन राजनीतिक दलों के द््रा ही पैदा की गई हैं । देश के दलितों के साथ यदि नय्य नहीं हो पाया है तो इसके लिए राजनीतिक दल ही जिममेदार हैं । इनकी इचछ् शसकि बहुत ही दुर्बल है । इनहोंने असपृशयि् मिटाने के लिए कभी मन से प्रयास नहीं किया । राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए आरक्षण और सरकारी जमीन को पट्े पर दलितों को देने की योजना के अतिरिकि इनहे कुछ और सूझा ही नहीं ।
राजनीतिक दलों के नेताओं का कहना है कि समाज से जातिवाद , अंधविशि्स , जड़ पूजा और असपृशयि् को मिटाना राजनीतिक लोगों का काम ना होकर सामाजिक नेताओं का काम होता है । यह तर्क भी बहुत ही दुर्बल और अटपटा है । पहली बात तो यह है कि यदि किसी जाति विशेष के उतथ्र और उद्धार के लिए ये वोट मांगते हैं तो समाज की विसंगतियों को मिटाने का काम भी इनहीं का है । इसके अतिरिकि दूसरी बात यह है कि अब से पूर्व भी देश के अनेक राजा महाराजा ऐसे रहे हैं जिनहोंने सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध सियं अभियान चलाया और उनहें तोड़रे का साहस करके दिखाया ।
बड़ौदा के आर्य नरेश सयाजीराव गायकवाड ने अपने शासनकाल में ऐसे 6 राजनियम बनाए थे जिनसे सामाजिक विसंगतियों को उख्ड़रे में सहायता मिली थी । वह आर्य सनय्सी सि्मी नितय्रंद के उपदेशों से इतने प्रभावित हुए कि सामाजिक आंदोलन के क्षेत् में सियं उतर गए । उनहोंने 1908 ईसिी में वैदिक विद््र मासटर आतम्राम अमृतसरी को बड़ौदा में आमंवत्ि किया था और उनके नेतृति में दलितों के कलय्ण के लिए लगभग 400 प््ठशालाऐं सथ्वपि करवाई थीं । जिनमें 20000 दलित समाज के बच्ों को पढ़रे का अवसर उपलबध करवाया था । इस संदर्भ में हमें यह भी धय्र रखना
चाहिए डॉकटर अंबेडकर को छ्त्िृत्ति देने वाले भी यही बड़ौदा नरेश थे , जो मूल रूप से आर्य समाज की विचारधारा से प्रभावित हुए थे ।
जब डॉकटर अंबेडकर शिक्षा के लिए लिए गए उपरोकि 20000 के ऋण को महाराजा को भुगतान नहीं कर सके तो आर्य समाज के नेता मासटर आतम्राम जी ने महाराजा बड़ौदा से मिलकर उनसे विशेष निवेदन करके डॉकटर अंबेडकर को दिया गया वह ऋण माफ करवा दिया था । यह घटना 1924 की है । इस प्रकार डॉकटर अंबेडकर के निर्माण में महाराजा बड़ौदा का उतना हाथ नहीं है , जितना आर्य समाज का योगदान है । यदि आर्य समाज के नेता आतम्राम ना होते तो महाराजा बड़ौदा उनसे अपने पैसे को वापस लेते । जिसे वह देने की ससथवि में नहीं थे ।
दलितों के उद्धार के लिए समर्पित महान सििंत्ि् सेनानी अलीगढ़ की जाट रियासत के आर्य राजा महेंद्र प्रताप अपने जीवन के आरंभिक दिनों में देशभर की यात्् करते हुए जब द््रिका के तीर्थ सथल में पहुंचे तो मंदिर के पुजारी ने उनसे उनकी जाति पूछ ली । महाराजा को मंदिर के पुजारी का इस प्रकार जाति पूछना अचछ् नहीं लगा । उनहोंने अपनी वासिविक जाति न बताकर पुजारी से कह दिया कि वह भंगी हैं । तब पुजारी और अनय लोग बोले कि यदि आप भंगी हैं तो फिर इस मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार आपको नहीं है । ऐसा जानकर राजा को बहुत कषट हुआ । उनको लगा कि जाति के नाम पर यदि मेरे देश में कुछ लोगों के साथ इस प्रकार का अनय्य हो रहा है तो यह उचित नहीं है । मंदिर के प्रमुख वयिसथ्पक को जब उनकी वासिविक जाति के बारे में ज््र हुआ तो उसने राजा से क्षमा याचना की । परंतु राजा महेंद्र प्रताप भी अपने आप में बहुत उच् आदर्श वाले राजा थे । अब वह अपने संकलप से डिगने का नाम नहीं ले रहे थे । उनहोंने मंदिर के भगवान का दर्शन करने से यह कहकर मना कर दिया कि मैं ऐसे भगवान का दर्शन नहीं करूंगा जो जनम के कारण मनुषय का अपमान करता है ।
आजकल के कांग्ेस के नेता चाहे कितनी ही
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