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के दौरान इस बात को लेकर काफी सचेत थे , कि यदि हम न केवल रूप में , बसलक वासिि में संविधान के जरिये लोकतंत् को बनाए रखना चाहते हैं , तो हमें इसके लिए कय् करना होगा । डॉ आंबेडकर ने अपनी पहली चेतावनी के समबनध में यह सुझाव दिया था कि यदि हमे अपने सामाजिक और आर्थिक उद्ेशयों को प्रापि
करना है तो संवैधानिक तरीकों पर तेजी से अपनी पकड़ बनानी होगी । उनका मानना था कि कि हमें खूनी क्रांति के तरीकों को पीछे छोड़ देना चाहिए । इससे उनका तातपयना , सविनय अवज्् , असहयोग और सतय्ग्ह की पद्धति को छोड़ देने से था । यह चौंकाने वाला अवशय हो सकता है , परनिु उनहोंने अपने इस विचार को साफ़ करते हुए आगे कहा था कि जब आर्थिक
और सामाजिक उद्ेशयों को प्रापि करने के लिए संवैधानिक तरीकों के उपयोग करने के लिए कोई रासि् मौजूद नहीं था , तब इन असंवैधानिक तरीकों का इसिेमाल किया जाना उचित था । लेकिन जहां संवैधानिक तरीके खुले हैं ( संविधान के जरिये ), वहां इन असंवैधानिक तरीकों को अपनाने का कोई औचितय नहीं हो सकता है ।
डॉ आंबेडकर ने अपनी दूसरी चेतावनी के समबनध में सुझाव देने के लिए जॉन सटुअर्ट मिल के लोकतंत् के प्रति विचार को वयकि करते हुए कहा था कि किसी नेता या किसी संसथ् के समक्ष , नागरिकों को अंधा समर्पण नहीं करना चाहिए । दरअसल मिल ने कहा था कि , " किसी महापुरुष के चरणों में अपनी सििंत्ि् को समर्पित या उस वयसकि पर , उसमें निहित शसकि के साथ भरोसा नहीं करना चाहिए , जो शसकि उसे संसथ्रों को अपने वश में करने में सक्षम बनाती हैं ।" डॉ आंबेडकर का यह मानना था कि उन महापुरुषों के प्रति आभारी होने में कुछ भी गलत नहीं है , जिनहोंने देश के लिए जीवन भर अपनी सेवाएं प्रदान की हैं । लेकिन कृतज्ञता की अपनी सीमाएं होती हैं । डॉ आंबेडकर ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए आयरिश पैवट्यट डटैवरयल ओ ' कोनेल के विचार को भी सदन के सामने रखा था । डटैवरयल ओ ' कोनेल के मुताबिक , " कोई भी वयसकि अपने समम्र की कीमत पर किसी और के प्रति आभारी नहीं हो सकता है , कोई भी महिला अपनी शुचिता की कीमत पर किसी के प्रति आभारी नहीं हो सकती है और कोई भी देश , अपनी सििंत्ि् की कीमत पर किसी के प्रति आभारी नहीं हो सकता है ।"
डॉ आंबेडकर यह मानते थे कि भारत के मामले में , यह सावधानी बरती जानी , किसी अनय देश की तुलना में कहीं अधिक आवशयक है । उनके अनुसार भारत में , भसकि ( या जिसे आतम् के उद्धार का मार्ग कहा जा सकता है ), देश की राजनीति में वह भूमिका निभाती है , जो दुनिया के किसी भी अनय देश की राजनीति में निभाई नहीं जाती है । उनका यह मानना था कि , धर्म में भसकि , आतम् के उद्धार का मार्ग हो
सकती है , लेकिन राजनीति में , भसकि या नायक- पूजा , तानाशाही की राह सुवरसशचि करती है । आंबेडकर ने अपनी तीसरी चेतावनी के समबनध में यह सुझाव दिया था कि हमें म्त् राजनीतिक लोकतंत् से संतुषट नहीं होना चाहिए , बसलक हमे समानता , सििंत्ि् और बंधुति के अंतर्निहित सिद्धांतों के साथ सामाजिक लोकतंत् के लिए भी प्रयासरत रहना चाहिए । हमें अपने राजनीतिक लोकतंत् को एक सामाजिक लोकतंत् भी बनाना होगा । उनके अनुसार , एक राजनीतिक लोकतंत् तब तक प्रगति नहीं कर सकता , जब तककि उसका आधार सामाजिक लोकतंत् नहीं होता है ।
गौरतलब है कि मई 1936 में छपी ' जाति का विनाश ' नामक अपनी उललेखनीय पुससिका में उनहोंने यह साफ़ तौर पर कहा था कि लोकतंत् में आमूल-चूल परिवर्तन लाने के लिए सबसे पहले समानता लाने पर जोर दिया जाना होगा और राजनीतिक परिवर्तन के पहले , सामाजिक परिवर्तन पर जोर दिया जाना चाहिए । उनका कहना था , " राजनीतिक लोकतंत् तब तक नहीं चल सकता जब तक कि वह सामाजिक लोकतंत् के आधार पर टिका हुआ नहीं है । सामाजिक लोकतंत् का कय् अर्थ है ? यह जीवन का एक तरीका है , जो जीवन के सिद्धांतों के रूप में सििंत्ि् , समानता और बंधुति को पहचान देता है ।" भारत नामक विचार को जीवित रखने के लिए आमबेडकर के अंतिम शबद हमे पढने चाहिए एवं आतममंथन करना चाहिए । उनके कहना था कि , " हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस सििंत्ि् ने हमें महान जिममेदारियां दी हैं । सििंत्ि् के बाद से हम कुछ भी गलत होने पर अब अंग्ेजों को दोषी नहीं ्ठहरा सकते हैं । यदि यहाँ से चीजें गलत हो जाती हैं , तो हमारे पास खुद को छोड़कर , दोष देने के लिए कोई नहीं होगा " यह कहना ग़लत नहीं होगा कि यह उनकी दूरदर्शिता ही थी कि वे संविधान सभा के आवख़री भाषण में आर्थिक और सामाजिक गैरबराबरी के ख़्तमे को र्षट्ीय एजेंडे के रूप में सामने लेकर आए I
( साभार ) ebZ 2023 39