विरोधी थे | ऐसे में बुद्धिजीवियों को विचार करना चाहिए कि भगवान बुद्ध के उपदेशों का विरोध करने वाला वयसकि बौद्ध कैसे हो सकता है ? Box महातम् बुद्ध और वैदिक कर्मफल वयिसथ् कार्तिक अययर कुछ वामपंथी-भीमसैनिक मानते हैं कि पुनर्जनम , परलोक आदि सब गपप है । शरीर नषट होने के बाद आतम् खतम हो जाती है । किसी को किसी कर्म का फल नहीं मिलता आदि आदि । लेकिन सच यह भी है कि भगवान बुद्ध वैदिक कर्म फल वयिसथ् मानते थे । कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेचछिसमाः । एवं तिवय नानयथेतोsससि न कर्म लिपयिे नरे ।।
( यजुिचेद 49 / 2 )
अर्थात श्सत् नियमतित कर्म करते हुये सौ िरयों तक जीने की इचछ् करनी चाहिये । इस प्रकार मनुषय कर्म से लिपि नहीं होता , इससे भिन्न कोई मार्ग नहीं है , जिससे कर्मबंधन से मुकि हो सके ।
भगवदगीि् 2 / 50 , 51 और 5 / 10 में भी यही
लिखा है । कर्मजं बुद्धि़युकि् हि फलं तयकति् मनीषिणः जनमबंधविनिर् मुकि्ः पदं गचछंतयर्यम् ।। (
गीता 2 / 51 ) अर्थात इस तरह ईशिर भसकि में लगे रहकर
बड़े बड़े ऋषि मुनि या भकिगण अपने आपको भौतिक कमयों के फलों से मुकि कर लेते हैं । इस प्रकार जीवन मरण के चक्र से छूटकर मुकि पद को प्रापि होते हैं ी
आपको जानकार आशचयना होगा कि लगभग ऐसी ही कर्मफल वयिसथ् बुद्ध मानते थे । धममपद में कहा गया है कि : - १ : - सदापुणय कर्म करो व पाप का तय्ग करो अभितथरेथ कलय्णे पापा चित्तं निवारये । दनधं हि करोतो पुञ्ं पापस्मं रमती मनो ।।
( धममपद पापवगगो क्रमिक शलोक 116 )
" पुणय कर्म करने की शीघ्रता करे । पाप कर्म से चित्त को निवृत्त करें । पुणय कर्म करने में आलसय करने वाले का मन पाप में रमने लगता है ।" वाणिजो व भयं वगगं अपपसतथो महद्धनो । विसं जीवितुकामो व पापानि परिवज्जये ।। (
शलोक-123 )
' जैसे जीने की इचछ् करने वाला वयसकि विष को तय्ग देता है , उसी प्रकार पाप से दूर रहना चाहिये ।" पाप पुणय उभयत्ः फलतः : - इध सोचति पेच् सोचति पापकारी उभयतथ
सोचति । सो सोचति सो विहञ्वि दिसि् कमम
वकवलट्मत्तनो ।। इध मोदति पेच् मोदति कतपुञ्ो उभयतथ
मोदति ।
सो मोदति सो मपोदति दिसि् कमम विसुद्धिमत्तनो ।। ( विनोबा भावे , धममपद 4 / 9 , 10 )
" पाप कर्म का कर्ता लोक परलोक दोनों में शोक करता है । अपना अशुभ कर्म देखकर तपड़पता है , शोक करता है ।। पुणयकर्म का कर्ता इस लोक में मुदित होकर परलोक में जाकर भी मुदित होता है । अपना पुणय देखकर मुदित होता है ।।"
इससे सिद्ध होता है कि बुद्ध भी आवागमन , लोक परलोक , पुनर्जनम में विशि्स करते थे़ I पर खेद है कि नवबौद्ध लोग इनमें कुछ रिद्ध् नहीं करते । वे पूर्णरूप से चार्वाक दर्शन का
अनुसरण कर रहे हैं । ४ : - कर्मफल अपरिहार्य है : - न अंतलिकखे न समुद्मजझे न पबबि्रं विवरं
पविसस । न विज्जती सो जगति पपदेसो यत् वट्िो मुञ्ेयय
पापकमम् ।। न अंतलिकखे .....। न विज्जती सो जगति
पपदेसो यत् वट्िं न पपसहेथ मच्ु ।। ( धममपद पापवगगो क्रमिक शलोक 127 ,
128 )
' संसार में ऐसा कोई सथ्र नहीं है- न अंतरिक्ष में , न समुद्र में , न पर्वतों में -जिसमें घुसकर पापकर्म और मृतयु से बचा जा सकता है ।'
यहां महाभारत के इस शलोक का भाव भी ऐसा ही है : -
नाधर्मः कारणापेक्षी कर्तारमभिमुंचति । कर्ताखलु यथा कालं ततः समभिपद्िे ॥ ( महाभारत , शांति पर्व , 298 )
अधर्म किसी भी कारण की अपेक्षा से कर्ता को नहीं छोड़ि् निशचय रूप से करने वाला समयानुसार किये कर्म के फल को प्रापि होता है । 8 ।
इससे ज््ि होता है कि महातम् बुद्ध की पुणय- पाप पर पूरी रिद्ध् थी । चाहे जहां भी चला जाये , मनुषय कर्म का फल प्रापि कर ही लेता है और उसका कर्म उसे नहीं छोड़ि् । साथ ही , जो पुणयकर्मा है , वो इस लोक व परलोक में भी पुणयफल प्रापि करता है । इससे सिद्ध है कि बुद्ध भी पुनर्जनम , परलोक मानते थे , पर उनके अनुयायी नहीं मानते और वैदिक धर्म का मजाक उड़्िे हैं । इसलिये , कर्मफल की वयिसथ् अकाट्य है- अवशयं लभते कर्ता फलं पापसय कर्मणः । घोरं पथय्यागते काले द्रुमः पुषपवमि्िनापम् ॥ (
बालमी . अरणय . स . - 299 )
हे कलय्णी ! यदि जो कुछ भी शुभ-अशुभ करता है करने वाला वही अपने किये कमयों के फल को प्रापि होता है । कर्म करने वाला अपने पाप कमयों का फल घोर काल आने पर अवशय प्रापि करता है । जैसे मौसम आने पर वृक्ष फूलों को प्रापि होते हैं । �
ebZ 2023 31