May 2023_DA | Page 32

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सरामराजिक-आर्थिक विकरास में बरराबरी की हिस्ेदरारी की तरफ बढ़तरा दलित समराज

श में जो दलित समाज कुछ अरसे पहले तक सिर्फ पहचान की राजनीति करने वाले कुछ नेतृति के साये में जी रहा था , वह अब पूरे देश की राजनीति की धुरी बनने लगा है । सामाजिक आर्थिक विकास में बराबरी की हिससेदारी करने लगा है और सशसकिकरण की सीढ़ी चढ़रे लगा है । पहचान के दायरे से आगे बढ़कर अब वह हिससेदारी लेने और देने की ससथवि तक पहुंचने लगा है । ऐसे में हर राजनीतिक दल को उनके समर्थन की भूख है ।
वासिि में देखा जाये तो दलित समाज देश की आबादी में लगभग 17-18 फीसदी हिसस् रखता है । वर्ष 2014 से पहले यह सभी बसपा , लोजपा , रिपसबलकन प्टटी जैसे कुछ दलों की सीमा में बंधे थे , जो पहचान की आधार पर था । लेकिन धीरे-धीरे यह पर्त खुलती चली गई कि सामाजिक नय्य के नाम पर जो पहचान खड़ी की गई थी , वह वासिि में नय्य नहीं बसलक केवल परिवार और खुद के सशसकिकरण पर टिकी थी । िरयों तक जारी इस सिलसिले में बदलाव के लिए प्रधानमंत्ी नरेंद्र मोदी ने सशकि भूमिका निभाई है I
मोदी सरकार ने शासन प्रक्रिया और समाज कलय्ण की योजनाओं के जरिए अंतिम पायदान पर खड़े दलित समाज को अधिकार संपन्न बनाया । वहीं , संविधान निर्माता आंबेडकर को पहली बार देश निर्माता के रूप में खड़् किया और वह इज्जत दी , जैसी आज तक किसी भी सरकार ने नहीं दी थी I प्रधानमंत्ी मोदी की पहल के कारण संसद में पहली बार 26 नवंबर को संविधान दिवस से रूप में मनाने और डॉ आंबेडकर के योगदान को याद करने की परंपरा शुरू हुई , जबकि उनके जीवन काल से जुड़े सथ्रों को पंचतीर्थ के रूप में विकसित कर
दिया ।
महू में उनकी जनमभूमि , लंदन में आंबेडकर मेमोरियल के रूप में शिक्षाभूमि , नागपुर में दीक्षा भूमि , मुंबई में चैतय भूमि और दिलली मेंनेशनल मेमोरियल के रूप में महापरिनिर्वाण भूमि का विकास किया । प्रधानमंत्ी मोदी ने यह भी प्रयास किया कि पहली बार संयुकि र्षट् में बाबा साहेब की जयंती मनाई गई । इस पूरे प्रयास का असर राजनीतिक रूप से भी दिखा । मायावती जहां अपने ही गढ़ में हाशिए पर खड़ी हो गईं , वहीं भाजपा के खाते मे सबसे जय्दा दलित सांसद , विधायक , जनप्रतिनिधि दिखने लगे हैं । इस बीच कुछ मुद्ों पर विपक्षी दलों ने दलित समाज के बीच बढ़ रही भाजपा की पै्ठ को कमजोर करने के लिए आरक्षण व दूसरे मुद्ों को तूल दिया , लेकिन चुनावी राजनीति में इसका असर नहीं दिखा ।
इसका कारण शायद दलित समाज में जागी वह चेतना थी कव बराबरी का बड़् माधयम समृद्धि और शिक्षा है । यही कोशिश अनय पिछड़ा वर्ग को लेकर भी हुई है , ताकि उनके बीच के ऐसी सैंकड़ों जातियों को लाभ मिल पाए जो इसके हकदार हैं । दलित समाज का बदला आयाम ही अब राजनीतिक दलों को डरा रहा
है । हर छोटा-बड़् दल इसका एक हिसस् चाहता है और खुद को उनके साथ खड़् दिखाना चाहता है । चुनाव की दहलीज पर खड़े तेलंगाना के मुखयमंत्ी के चंद्रशेखर राव भी इसमें कूद पड़े हैं । सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कांशीराम की प्रतिमा को अनावरण कर दलित समाज को जोड़रे की कोशिश की तो उनकी प्टटी के ही सि्मी प्रसाद मौर्य ने रामचरित मानस को दलितों के खिलाफ बताकर उनको भ्रमित करने की कोशिश की ।
यह कोशिश उत्तर प्रदेश से शुरू हुई और बिहार होते हुए कई राजयों में उन दलों की ओर से हुई जो सशसकिकरण के नाम पर इकट्े हुए दलित समाज को पहचान के नाम पर तोड़र् चाहते थे । लेकिन गंगा में पानी बहुत बह चुका है । दलित और पिछड़े वर्ग को यह समझ आ चुका है कि जातिवर्ग के नाम पर उनके ही कथित नेताओं ने उनका शोषण करने के साथ ही उनके हक़ में सेंध लगाने की कोई कोशिश बाकी नहीं छोड़ी I इसलिए दलित और पिछड़ा वर्ग अब भाजपा के साथ जुट गया है I देखना यह होगा कि भविषय में होने वाले आम चुनाव में दलित और पिछड़ा वर्ग किसे अपना नेतृति करने का मौका प्रदान करेगा । �
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