बाबा साहब ने असहाय महिलाओं को उ्ठकर लड़रे की प्रेरणा देने के लिए बाल विवाह और देव दासी प्रथा जैसी घटिया प्रथाओं के खिलाफ आि्् उ्ठ्ई । 1928 में मुंबई में एक महिला कलय्णकारी संसथ् की सथ्पना की गई थी , जिसकी अधयक्ष बाबा साहब की पत्ी रमाबाई थीं । 20 जनवरी 1942 को डॉ . भीम राव अंबेडकर की अधयक्षता में अखिल भारतीय दलित महिला सममेलन का आयोजन किया गया था जिसमें करीब 25 हजार महिलाओं ने हिसस् लिया था । उस समय इतनी भारी संखय् में महिलाओं का एकजुट होना काफी बड़ी बात थी ।
बाबा साहब ने दलित महिलाओं की प्रशंसा करते हुए कहा था ‘ महिलाओं में जागृति का अटूट विशि्स है । सामाजिक कुरीतियां नषट करने में
महिलाओं का बड़ा योगदान हो सकता है । मैं अपने अनुभव से यह बता रहा हू ं कि जब मैने दलित समाज का काम अपने हाथों में लिया था तभी मैने यह निशचय किया था कि पुरूषों के साथ महिलाओं को भी आगे ले जाना चाहिए । महिला समाज ने जितनी मात्् में प्रगति की है इसे मैं दलित समाज की प्रगति में गिनती करता हूँ ’।
भारतीय संदर्भ में देखा जाए तो आंबेडकर संभवत : पहली शसखसयत रहे हैं , जिनहोंने जातीय संरचना में महिलाओं की ससथवि को जेंडर की दृसषट से समझने की कोशिश की । उनकी पूरी वैचारिकी के मंथन और दृसषटकोण में सबसे अहम मंथन का हिसस् महिला सशसकिकरण था । भारतीय नारीवादी चिंतन और डॉ आंबेडकर
के महिला चिंतन की वैचारिकी का केंद्र रि्ह्मणवादी पितृसत्तातमक वयिसथ् और समाज में वय्पि परंपरागत धार्मिक और सांस्कृतिक मानयि्एं रही हैं , जो महिलाओं को पुरुषों के अधीन बनाए रखने में महतिपूर्ण भूमिका अदा करती रही है ।
डॉ आंबेडकर ने कहा था , ‘ मैं नहीं जानता कि इस दुनिया का कय् होगा , जब बेटियों का जनम ही नहीं होगा ।‘ सत्ी सरोकारों के प्रति डॉ भीमराव आंबेडकर का समर्पण किसी जुनून से कम नहीं था । सामाजिक नय्य , सामाजिक पहचान , समान अवसर और संवैधानिक सििंत्ि् के रूप में नारी सशसकिकरण लिए उनका योगदान पीढ़ी-दर-पीढ़ी याद किया जायेगा । �
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