भी मानता हूं ।” इनका सुरक्षित क्षेत् जाटों का इलाका है , जिनकी संखय् नबबे हजार है । इनहीं के वोटों पर इस दलित की जीत निर्भर करती है । कय् इस विधायक से दलितों के लिए काम करने की उममीद की जा सकती है ?
यही कारण है कि दलित राजनेता दलितों के लिए काम करने का साहस नहीं करते । ऐसा नहीं है कि वे काम करना नहीं चाहते , वे चाहते हैं , पर उनका दुख यह है कि वे दलितों के लिए आवाज उ्ठ्कर सवर्ण वोटरों को नाराज नहीं कर सकते । इसलिए दोष दलित नेताओं में उतना नहीं है , जितना सिणयों में है , जो हमेशा दलितों पर शासन करना अपना दैवी अधिकार समझते
हैं । एक बार डॉ . आंबेडकर ने सवर्ण हिंदुओं से कहा था कि अगर दलित आज़ादी चाहते हैं , तो इसका मतलब यह नहीं है कि वे तुमह्री आज़ादी छीनना चाहते हैं । वे अगर उच् शिक्षा चाहते हैं , तो वे तुमह्री उच् शिक्षा के खिलाफ नहीं हैं । वे अगर नौकरियां चाहते हैं , तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वे तुमह्री नौकरियों के विरुद्ध हैं । वे अगर अचछ् खाना और अचछ् पहनना चाहते हैं , तो वह तुमह्रे रहन-सहन के खिलाफ कैसे है ?
मगर जाति-वयिसथ् के अंधे सवर्ण हिंदुओं की मानसिकता में कोई फर्क नहीं आया । उनके धर्म ने उनहें दलितों से घृणा और तिरसक्र के
जो संसक्र दिए हैं , वे उनहें पवित् मानते हैं और छोड़ना नहीं चाहते । इसलिए अगर किसी भी निर्वाचन क्षेत् में आज़ादी के इतने सालों बाद भी दलितों की सामाजिक और आर्थिक सूरतेहाल नहीं बदली है , तो इसके लिए दलित नेता कम , और उस इलाके के सवर्ण हिंदू जय्दा दोषी हैं , जो सारे संसाधनों , सारी नौकरियों और सारे विकास पर सिर्फ अपना हक समझते हैं , और दलितों की सुविधाहीन बससियों और उनमें रहने वाले बेबस गरीबों को देखकर निर्लज्जता से हंसते हुए निकल जाते हैं । कयोंकि वे इस इककीसवीं सदी में भी लोकतांवत्क सोच के साथ रहने के लिए तैयार नहीं हैं । �
ebZ 2023 23