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नेतृति में शिक्षा और ज््र की साधना के प्रति रुझान कम दिखाई देता है । उनमें आक्रोश बढ़् है , अपने अधिकारों की चेतना तीव्र हुई है , लेकिन विचार के सिर पर जय्दातर पिषटपेषण ही नजर आता है । इस हद तक दलित संघर्ष थमा हुआ नजर आता है । डॉ . आंबेडकर की बातों को याद रखना उचित है , उनहें दुहराना भी आवशयक है , लेकिन उनकी विरासत को आगे ले जाना भी वांछित है । यह काम काफी हद तक उपेक्षित है और कुछ हुआ भी है , तो उसे साधारण जनता तक ले जाने की बेचैनी नहीं दिखाई देती ।
दूसरी ओर , शिक्षा के प्रसार में दलित नेतृति की रुचि बहुत ही कम या नहीं के बराबर है । यह सच है कि एक आधुनिक लोकतांवत्क समाज के सभी िगयों के बीच शिक्षा का प्रसार करना सरकार का ही काम है । लेकिन हमारी शिक्षा नीति में दलितों के विरुद्ध पूर्नाग्ह बिलकुल सपषट हैं । उनके बीच शिक्षा का प्रसार करने के लिए विशेष अभियान चलाये जाने चाहिए थे , लेकिन यह जान-बूझ कर नहीं हुआ । आज भी दलित का बेटा सकूल जाता है , तो उसे सवर्ण समाज से ताने सुनने पड़िे हैं । इस ससथवि को दूर करने में दलित नेतृति निर्णायक भूमिका निभा सकता था । वह दलितों में शिक्षा पाने की भूख पैदा कर सकता था । उनके लिए सकूल खुलवा सकता था और जहाँ यह सुविधा है , दलितों को प्रेरित कर सकता था कि वे अपने बच्ों को सकूल जरूर भेजें । लेकिन ऐसा लगता है कि दलित नेतृति शिक्षित दलितों से डरता है , कयोंकि इनमें कुछ सि्वभमान आ जाता है और ये प्रश्न कर सकते हैं , जबकि अनपढ़ दलित भेड़ की तरह उनके पीछे चल सकता है । विडंबना यह है कि वह दलित नेतृति सियं भी पढ़रे-लिखने से दूर ही रहता है , जिसके कारण उसका अपना विकास भी नहीं हो पाता । कय् डॉ . आंबेडकर की विरासत यही है ?
जहां तक दलित एकता का सवाल है , इस मामले में डॉ . आंबेडकर की विरासत की सबसे जय्दा उपेक्षा हुई है । वैसे तो सियं डॉ . आंबेडकर के जमाने में ही दलित नेतृति की कई धाराएँ थीं और जितने दलित डॉ . आंबेडकर के पीछे
थे , उससे कहीं जय्दा दलित गांधीजी के साथ थे । यही कारण है कि विधायिका में दलितों के लिए आरक्षण का सबसे जय्दा लाभ कांग्ेस को ही मिला । अब यह भाजपा को मिल रहा है । इसके दो कारण हैं । एक , दलित राजनीति का अभाव । दो , दलितों में इस बोध का अभाव कि उनकी अपनी राजनीति ही सही मायने में उनका प्रतिनिधिति कर सकती है ।
चतुर सवर्ण नेतृति हर सिर पर दलितों को कमजोर और विभाजित करने में सफल रहा है । लेकिन इससे भी जय्दा तकलीफ की बात यह है कि दलित संग्ठरों में एकता का घोर अभाव है । न केवल दलित राजनीति बंटी हुई है , बसलक दलित संग्ठरों में आपसी भाईचारे तक की कमी है । यही कारण है कि कोई दलित एजेंडा उभर कर नहीं आ पा रहा है । जहां तक दूसरे दलितों के साथ रिशिों का सवाल है , दलित राजनीति ने अचूक अवसरवाद का परिचय दिया है , जिससे उसकी शसकि सामयिक तौर पर भले ही बढ़ी हो , पर उसकी साख को धकक् लगा है । डॉ .
आंबेडकर दलितों के लिए कुछ भी कर सकते थे , लेकिन उनहोंने अवसरवाद का परिचय कभी नहीं दिया । उनका दलित एजेंडा बिलकुल साफ था और उसकी कीमत पर उनहें कुछ भी मंजूर नहीं था ।
इसके विपरीत आज के दलित नेतृति में दलित एजेंडा के प्रति लगाव कम और सत्ता के प्रति लगाव जय्दा नजर आता है । यह नहीं भूलना चाहिए कि अपने समय में डॉ . आंबेडकर का महत्ि कितना जय्दा था : गांधी और नेहरू तक उनकी उपेक्षा नहीं कर पाये । लेकिन आज के दलित नेतृति की बौद्धिक और सामाजिक हैसियत कय् है ? अपने अंतिम दिनों में डॉ . आंबेडकर जिस बात से सबसे अधिक आहत थे , वह थी शिक्षित दलितों की अशिक्षित दलितों से बड़ी हुई दूरी । बताया जाता है कि इसकी चर्चा करते हुए एक जनसभा में उनकी आँखों से आँसू तक निकल आए थे । कय् उनके जाने के बाद यह दूरी और बढ़ी नहीं है ?
शिक्षित और मधयिगटीय हो जाने के बाद
10 ebZ 2023