था और इस निषकर्ष पर पहुँचे थे कि भारत के दलितों के लिए बौद्ध धर्म ही अचछ् है । उनका यह विचार अभी भी प्रासंगिक है , यह इससे सिद्ध हो जाता है कि जहां-जहां दलितों ने इसल्म या ईसाइयत को सिीकार किया , उसके कारण हिनदू समाज में तनाव बढ़् । मीनाक्षीपुरम की घटना ने , जहां एक पूरे गाँव ने इसल्म सिीकार कर लिया था , हिनदुति की संकीर्ण राजनीति को बढ़्रे में निर्णायक भूमिका निभायी और इससे दलितों का कुछ खास भला भी नहीं हुआ ।
डॉ . आंबेडकर मानते थे कि धम्ांतरण का कारण नय्य , आधय्सतमक दिशा और नैतिक संहिता दे सके । यह हिनदू धर्म से पलायन भौतिक लाभ की इचछ् नहीं , बसलक एक ऐसे धर्म की खोज होना चाहिए , जो हमें सामाजिक नहीं , बसलक एक बेहतर धर्म का सिीकार है । लेकिन बाद के धर्मानिरण के प्रयासों में यह चेतना कम दिखाई देती है । इससे भी जय्दा प्रकट सतय यह है कि धर्मानिरण का रासि् वय्पक रूप से सिीकार्य नहीं हो पाया है । इसीलिए इसके अनुकूल परिणाम भी नहीं निकले हैं । यदि भारत के सभी दलित किसी एक दिन कोई धर्म सिीकार कर लें , तो यह एक क्रांतिकारी घटना हो सकती है । लेकिन फिलहाल तो यह अ-संभावना ही लगती है । आज के जय्दातर दलित अपने मौजूदा समाज में ही अपनी मुसकि का रासि् खोजना चाहते हैं ।
डॉ . आंबेडकर की दूसरी विरासत दलितों के लिए उनका यह अमिट संदेश है कि शिक्षित और संगव्ठि बनो । डॉ . आंबेडकर ने अपने जीवन में जो कुछ भी हासिल किया था , उसका एक बड़् कारण उच् शिक्षा थी और उनका विसिृि अधयिसाय था । वे जानते थे कि शिक्षित होकर ही दलित सवर्ण हिनदू समाज से टककर ले सकते हैं । दलितों का संघर्ष सिर्फ सामाजिक या राजनीतिक संघर्ष नहीं है । यह वैचारिक संघर्ष भी है । अनय्य सबसे पहले एक विचार के रूप में पैदा होता है और अनय्यपूर्ण जाति प्रथा एक विचार के रूप में ही हिनदू समाज में जड़ जमाये हुए है ।
लेकिन डॉ . आंबेडकर के बाद के दलित
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