March 2025_DA | Page 41

( वासुदेवः सर्वमिति-7-19 ) का प्हतरादक है , जबकि वर्ण-वयवस्ा ्भे्रदूलक है , अद्ैतविरोधी है । ऋगवे् की जिस ऋचा ( 10-19-12 ) से वर्ण-वयवस्ा का समर्थन किया जाता रहा है , उसमें संसार में सबसे पहले सतय एक है , जिसे विद्ान बहुत नामों से पुकारते हैं ( ऋगवे् 1-164-46 ) की घोषणा की गई । मोक् के लिए अद्ैत के दर्शन को सवीकार कर विकसित होने वाली परमररा में वर्ण-वयवस्ा ्यों और कैसे उतरन्न हुई , इस विषय पर अ्भी तक शीघ्र और अनुसंधान हुआ ही नहीं है । यह आ्चय्म की ही बात है कि अद्ैत-दर्शन पर हव्वास करने वाले आदि शंकराचार्य ने इस वर्ण-वयवस्ा का समर्थन कैसे किया ।
तर्कतीर्थ लक्रण शासरिी जोशी ने लिखा है- “ ऐसा एक ्भी प्राण मानव जाति के इतिहास में
ढूंढने से नहीं मिलता है , जिससे यह कहा जा सके कि ब्राहमण , क्हरिय , वै्य और शदूद्रों की उतरहति जनर के आधार पर होती है । इतिहास तो यही कहता है कि एक ही मानव वंश में ्भी नई सांस्कृतिक परमररा उतरन्न होती है और पुरानी बदल जाती है । गुण और कर्म परसरर विरोधी नहीं है । ऐसे हजारों मनुषय है जिनमें ज्ञान , संयम , शौर्य , वयवसाय कौशल और शारीरिक श्रम का संगम हुआ है । यह गुण ब्राहणों , क्हरियों , वै्यों और शदूद्रों के स्वाभाविक गुण बताए जाते हैं ।“
्भक्त आन्ोलन जाति प््ा को शिथिल करने में तो कुछ हद तक सफल रहा , लेकिन इसका रदूण्मतः उन्मूलन करने में यह कामयाब नहीं हुआ । इसी सन्दर्भ में हमें डा . आंबेडकर की उस पीड़ा को समझना होगा जो उनिें
सामाजिक नयाय की खोज के लिए झेलनी रड़ी । असरृ्य जाति में जनर लेने के कारण उनिें आतर-वेदना की आग में तपना रड़ा , जिसने उनके मन-रकसतषक को झकझोर दिया । इसके परिणामसवरूप उनिोंने सामाजिक नयाय के लिए क्ठोर प्यास किया और इस हनहरति अपना ्भररदूर योगदान किया । डा . आंबेडकर के लिए यह एक बड़े समरान की बात है कि उनका सररण हद्तीय मनु के रूप में किया जाता है ।
संविधान की उद्ेहशका में , डा . आंबेडकर ने सवातनत्र , समता और बंधुतव से पहले नयाय को स्ान दिया है । हालांकि सवातनत्र , समता और बनधुतव के आ्शषों को सरदूचे यदूरोप में फांस की रिाकनत के बाद मानयता प्ापत हुई , लेकिन नयाय की ्भावना ्भारतीय परमररा का सर्वथा निजी
भक्त आन्दोलन जाति प््ा को शिथिल करने में तो कुछ हद तक सफल रहा , लेकिन इसका पूर्णतः उन्मूलन करने में यह कामयाब नहीं हुआ । इसी सन्दर्भ में हमें डा . आंबेडकर की उस पीड़ा को समझना होगा जो उन्हें सामाजिक न्याय की खोज के लिए झेलनी पड़ी । अस्पृशय जाति में जन्म लेने के कारण उन्हें आतम-वेदना की आग में तपना पड़ा , जिसने उनके मन- मस्तिषक को झकझोर दिया ।
उपहार है । तथापि बाद में , नयाय की यह ्भावना धर्म की उस ्भावना से जुड़कर विककृत हो गई , जो वर्ण ्भावना से प्रभावित हो गई थी ।
नयाय की ्भारतीय परमररा असनतुहलत और रक्रातरदूण्म हो गई और इससे इसकी प्हतष्ठा को ्भी ध्का पहुंचा । वेद , उपनिषद , गीता , रामायण , महा्भारत , पुराण आदि में यही दर्शन बार-बार सामने आया है कि जनर पर आधारित ्भे् ्भावरदूलक वर्ण-वयवस्ा या जाति-वयवस्ा का कोई आधार नहीं है ।
कुछ लोगों के मन में इस बात की आशंका हो सकती है कि ्या अद्ैत दर्शन के आधार पर सामाजिक-आर्थिक , राजनीतिक , सांस्कृतिक और धार्मिक वयवस्ा का निर्माण सम्भव है ? मेरा मानना है कि यह सं्भव ही नहीं , बल्क
अनिवार्य और अपरिहार्य है । यदि अद्ैत दर्शन को उचित मानयता प््ान नहीं की जाती है , तो हव्व में कोई ्भी धर्म , समाज , वयवस्ा अथवा मर्यादा नहीं टिक पाएगी ।
वर्तमान पररकस्हतयों में , ्भारत के लिए सं्भावनाओं का एकदम एक नया संसार प्तीक्ा कर रहा है , ्योंकि अद्ैतवाद की परमररा यहां वैदिक काल से चली आ रही है । वैदिक काल से ही यहां इस बात का बोध रहा है कि विद्ा ( आधयाकतरक ज्ञान ) और अविद्ा ( ्भौतिक ज्ञान ), दोनों के सह-अकसततव से ही मानव जीवन की रदूण्मता , अतः सवाांगीण सामाजिक विकास सम्भव है । लेकिन प्ाचीन ्भारत में आधुनिक युग की तरह विज्ञान का विकास नहीं होने के कारण आज की तरह प्तयेक वयक्त के लिए विकास के समान अवसर और साथन उपलबध कराना सं्भव नहीं था । अब चदूंकि विज्ञान की सहायता से यह सं्भव है , अतः वर्ण और जाति-वयवस्ा के स्ान पर ्भारतीय संविधान की उद्ेहशका के अनुरूप नयाय , सवातनत्र , समता और बनधुतव पर ऐसी वयवस्ा का निर्माण सं्भव है , जिसमें गणराजय के समसत नागरिकों को अवसर की समता प्ापत हो सके ।
्भारत ने प््र मनु के उद्े्यों पर धयान नहीं दिया और न ही उसने हद्तीय मनु अर्थात् डा . आंबेडकर की इस सलाह को ही माना कि चौदह वर्ष तक की आयु के स्भी बच्चों को अनिवार्य और निःशु्क शिक्ा दिए जाने की वयवस्ा करना आव्यक है । इसके दुषररिणाम हमारे समाने हैं । अद्ैत दर्शन पर आधारित संरदूण्म जीवन-वयवस्ा के निर्माण के लिए ्या मानव समाज को तृतीय मनु की प्तीक्ा करनी रड़ेगी ? हद्तीय मनु ( डा . आंबेडकर ) का ककृहततव इस दिशा में प्काश-स्तंभ का कार्य करेगा ।
( लेखक केंद्र सरकार के पूर्व मंत्ी थे । उनका यह लेख 1991 में लोकसभा सचिवालय द्ारा प्काशित ' सुप्लसद् सांसद ( मोनोग्राफ सीरीज ) डा . बी . आर . आंबेडकर ' नामक पुस्तक में सतममलित किया गया था । पाठकों के लिए यह लेख साभार प्स्तुत किया गया है । )
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