संवैधानिक गणतंत्
और फिर इन पांच वगषों की हजारों जातियां- उपजातियां विकसित हो गई । डा . आंबेडकर ने “ शदूद्र कौन ” नामक अपनी पुसतक में सामाजिक नयाय की दृकषट से गं्भीर समाजशासरिीय और ऐतिहासिक विवेचन प्सतुत कर अपनी यह मानयता प्सतुत की है कि शदूद्र वसतुतः सदूय्मवंशी क्हरिय थे , जिनिें विवाद और विद्ेर के कारण ब्राहणों ने उपनयन संसकार से वंचित कर , शदूद्र होने को विवश कर दिया । डा . आंबेडकर का मानना था कि ्भारत की सवतंरिता के लिए संघर्ष करने वालों को पहले इस अमानवीय वर्ण- वयवस्ा को समापत करने के लिए आंदोलन करना चाहिए , त्भी ्भारत में सवतंरिता का कोई अर्थ होगा और लोकतंरि सवस् रूप में विकसित होगा ।
वर्ण-वयवस्ा का सं्भवतः सबसे प्ाचीन
और प्ाराणिक दार्शनिक समाजशासरिीय आधार
गीता के इस ्लोक में प्ापत होता है- चातुर्वणयं मया सृषटं गुणकर्महव्भागशः । तसय कर्तार मपि मां हवद्यकर्तारमवययम् ।।“ इसका अर्थ है कि चार वणषों का सरदूि , गुण और कमों के हव्भागरदूव्मक मेरे द्ारा रचा गया है । इस प्कार उस सुकषट-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर ्भी मुझ अविनाशी परमे्वर को तदू वासतव में अकर्ता ही जान ।“
्लोक से यह सरषट है कि समाज को चार वणषों में हव्भाजित करने का आधार गुण और कर्म है , जनर नहीं । यह कहने की आव्यकता नहीं है कि जनर को ही वर्ण और जाति की वयवस्ा का आधार मानने की बात परमररा से चली आ रही है । आज यह बात स्भी सवीकार करते है कि जनर को आधार मान लेने के कारण ्भारतीय समाज की गतिशीलता समापत हो गई
है । डा . आंबेडकर का यह दृढ हव्वास था कि लोकतंरि के सवाांगीण और सवस् विकास के लिए जनर पर आधारित ऊंच-नीच को इस समाज-वयवस्ा को समापत करना होगा त्भी वयक्त को अपनी क्रता विकसित करने की प्ेरणा मिल सकेगी । ्भारतीय संविधान में असरृ्यता तो समापत कर दी गई , लेकिन वर्ण- वयवस्ा और जाति-वयवस्ा अ्भी ्भी न केवल बनी हुई है , बल्क इसका जोरदार समर्थन ्भी किया जाता है ।
महातरा गांधी यद्हर असरृ्यता को हिन्दू धर्म का कलंक मानते थे और जनर पर आधारित जाति-वयवस्ा के विरोधी थे , परनतु वह वर्णाश्रम वयवस्ा के समर्थक थे । वर्ण को वह गुण और कर्म पर आधारित मानते थे , जिसका संबंध मनुषय के सवधर्म से है । गांधी जी यह मानते थे
जब धर्म-पंडितों ने वर्ण-वयवस््ा की आधार ऋगवेद की उ्त ऋचा और गीता के गुण-कर्म सिद्ान्त को परिभाषित किया तथा इन्हें स्वधर्म और पुनर्जन्म से जोड़कर , सामाजिक वयवस््ा को धार्मिक वयवस््ा का रूप दे दिया , तब इस धर्मप्ाण देश में इसका विरोध करना असंभव सा हो गया ।
कि “ शासरिों में वर्णित वर्णाश्रम वयवस्ा आज कहीं वयवहार में नहीं है और वर्तमान जाति- वयवस्ा वर्णाश्रम वयवस्ा के सर्वथा विपरीत है और जनमत को इसे शीघ्र से शीघ्र समापत कर देना चाहिए ।“ फिर वह “ चार वणषों को बुनियादी , स्वाभाविक और अनिवार्य ” मानते थे । पंडित गोपीनाथ कविराज के अनुसार “ वर्ण और आश्रम दोनों ही मोक् प्ारक सामाजिक संस्ान हैं । यद्हर वर्तमान युग में इसका उपयोग बहुत लोग समझते नहीं हैं , तथापि ऐतिहासिक दृकषट से तथा ताकतवक विचार से देखने पर , वर्ण- वयवस्ा तथा आश्रम-वयवस्ा तर्कसंगत ही प्तीत होती है ।“ इस विषय पर डा . ्भगवान दास ने विसतार से विचार किया और उनिोंने वर्तमान सन्दर्भ में “ मनुसरृहत ” की वयाखया की है ।
तो ्या डा . आंबेडकर की सामाजिक नयाय की खोज , वर्ण और जाति-वयवस्ा की उनकी
आलोचना अनाव्यक है ? गांधी जी ने ्ठीक ही कहा है कि शासरिों में वर्णित वर्णाश्रम वयवस्ा आज समाज में कहीं प्चलित नहीं है और प्चलित जाति-वयवस्ा वर्णाश्रम वयवस्ा के सर्वथा विपरीत है , अतः इसे समापत कर देना चाहिए । गांधी जी ने केवल असरृ्यता की समाकपत के लिए आंदोलन चलाया , जाति-वयवस्ा की समाकपत के लिए नहीं । जयोहतबा फुले की तरह डा . आंबेडकर ने वर्ण-वयवस्ा और जाति- वयवस्ा दोनों को अमानवीय और अनयायरदूलक मानकर , दोनों की समाकपत कर समता , सवातनत्र और बंधुतव पर आधारित नई सामाजिक वयवस्ा के निर्माण के लिए जीवन-्भर संघर्ष किया ।
जब धर्म-पंडितों ने वर्ण-वयवस्ा की आधार ऋगवे् की उ्त ऋचा और गीता के गुण-कर्म सिद्ानत को परर्भाषित किया तथा इनिें सवधर्म और पुनर्जनर से जोड़कर , सामाजिक वयवस्ा को धार्मिक वयवस्ा का रूप दे दिया , तब इस धर्मप्ाण देश में इसका विरोध करना असं्भव सा हो गया । वैदिक और पौराणिक परमरराओं के समातनियों ने धर्म का अंग मानकर इसका समर्थन किया । यद्हर महावीर और गौतम बुद् ने इस वयवस्ा का विरोध किया , तथापि वह ्भी इस वयवस्ा के स्ान पर किसी अधिक नयायसंगत और स्ायी वयवस्ा का निर्माण नहीं कर पाए । अतः जैन और बौद् धर्म ्भी सनातन धर्म पर अपना प्रभुतव नहीं जमा पाए । यह आ्चय्म की बात है कि इस ्भे््भावरदूलक वयवस्ा के विरुद् न तो कोई आंदोलन हुआ , न किसी ने इसका विरोध किया । गौतम बुद् की धर्मपरिवर्तन वयवस्ा ्भी वर्ण और जाति-वयवस्ा को समापत नहीं कर पाई । ्भक्त आंदोलन ने ्भी जाति- वयवस्ा को कुछ शिथिल तो अव्य किया , परनतु यह उसे समापत नहीं कर पाया ।
इसका कारण ्या है ? इसका कारण यह है कि वर्ण-वयवस्ा के दार्शनिक-समाज-शासरिीय रदूलाधार को अछूता रहने दिया गया । इस ओर गं्भीरतारदूव्मक धयान ही नहीं दिया गया कि गीता का सवधर्म और गुण-कर्म वर्ण या जाति-वयवस्ा के पोषक सवधर्म और गुण-कर्म नहीं हो सकते , ्योंकि गीता का दर्शन अ्भेद और अद्ैत
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