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को इन तीनों के एक संयु्त रूप से पृथक-पृथक मदों के रूप में नहीं समझना चाहिए । इन तीनों का मिलकर एक इस प्कार का संयु्त रूप बनता है कि एक का ्दूसरे से विचछे् करना लोकतंरि के रदूल प्योजन को ही विफल करना है । सवातनत्र को समता से पृथक नहीं किया जा सकता , समता को सवातनत्र से पृथक नहीं किया जा सकता और न सवातनत्र या समता को ही बनधुतव से पृथक किया जा सकता है । समताविहीन सवातनत्र से कुछ वयक्तयों की अनेक वयक्तयों पर प्रभुतव का प्ा्ु्भा्मव होगा । सवातनत्र विहीन समता वयक्तगत उररिर का ह्ास करेगा । बनधुतव के बिना सवातनत्र और समता अपना स्वाभाविक मार्ग ग्िण नहीं कर सकता । उनको प््ति करने के लिए सिपाही की आव्यकता है । यह तरय सवीकार करते हुये हमें कार्यारम्भ करना चाहिए कि ्भारतीय समाज में दो बातों का रदूण्मतया अ्भाव है । इनमें से एक समता है । सामाजिक सतर पर हमारे ्भारत में हमारा एक ऐसा समाज है , जो रिरानुसार निश्चत असमता के सिद्ानत पर आश्रित है जिसका अर्थ कुछ वयक्तयों की उन्नति और कुछ का पतन है । आर्थिक सतर पर हमारा एक ऐसा समाज है जिसमें कुछ लोग ऐसे हैं , जिनके पास अतुल समरहति है और कुछ ऐसे है जो निरी निर्धनता में जीवन बिता रहे हैं । 26 जनवरी 1950 को हम विरोधी ्भावनाओं से परररदूण्म जीवन में प्वेश कर रहे हैं । राजनीतिक जीवन में हम समता का वयवहार करेंगे और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में असमता का । राजनीति में हम एक वयक्त के लिए एक मत और एक मत का एक ही मूल्य के सिद्ानत को मानेगें । अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में अपनी सामाजिक और आर्थिक वयवस्ा केकारण एक वयक्त का एक ही मूल्य के सिद्ानत का हम खंडन करते रहेंगे । इन विरोधी ्भावनाओं के परररदूण्म जीवन को हम कब तक बिताते चले जाएंगे ? यदि हम इसका बहुत काल तक खंडन करते रहेंगे तो हम अपनी राजनीतिक लोकतनत्र को संकट में डाल देंगे । हमें इस विरोध को यथासं्भव शीघ्र ही मिटा देना चाहिए अनय्ा
जो असमता से पीहड़त हैं वह लोग इस राजनीतिक लोकतनरि की उस रचना का विधवंस कर देंगे जिसका निर्माण इस स्भा ने इतने परिश्रम के साथ किया है ।“
यह उद्रण डा . आंबेडकर के जीवन-दर्शन और विचारधारा का सारांश है । उनका जीवन- दर्शन समता , सवातनत्र और बनधुतव की मानयता पर आधारित था , परनतु एक के मूल्य पर ्दूसरे की उपेक्ा उनिें असह्य थी । इन तीनों के लिए उनिोंने जिस “ हरिरदूहत्म ” शब् का प्योग किया था , वह इन तीनों अंगों की अनयोनयाश्रयता और परसरररदूरकता का घोतक है , एक की उपेक्ा कर अनय पर बल देने से अनततः स्भी दुर्बल रड़ने लगते हैं और लोकतंरि रूपी शरीर असवस्
होने लगता है ।
शरीर के हवह्भन्न अंगों में अनयोनयाश्रयता और परसरररदूरकता का जो रदूल ततव निहित है उसका विसररण कर देने से अर्थ का अनर्थ ही नहीं होता , बल्क रदूरी परंपरा विककृत हो जाती है । सवतंरि ्भारत का वर्तमान इतिहास ही नहीं , बल्क आधुनिक पा्चातय देशों का इतिहास ्भी इस बात का साक्ी है कि सवातनत्र , समता और बनधुतव में से केवल किसी एक पर बल देने के कारण किस प्कार से सम्पूर्ण वयवस्ा में असंतुलन आ जाता है और वयवस्ा से असंतुषट रक् वयवस्ा को ही नषट करने पर तुल जाता है । कस्हत तो तब और ्भी दयनीय हो जाती है जब राजनीतिक लोकतंरि को ही सब कुछ मानकर वयवस्ा पर वर्चसव रखने वाला वर्ग सामाजिक और आर्थिक लोकतंरि के स्वाभाविक विकास और प्गति के मार्ग को हवह्भन्न उपायों का सहारा लेकर अवबंद् करने लगता है । इतिहास काल-पुरुष का चरण है और काल-पुरुष
की गति को अवरुद् करने के प्यास का परिणाम होता है विककृहत और मृतयु । वयक्त ही नहीं समाज के उत्ान-पतन का ्भी यह दर्शन है । कावय-रूप के अह्भप्ाय को खंडित कर देने से रदूरी परमररा किस प्कार विककृत और मृतप्ाय हो जाती है , इसका जवलंत प्राण है वेद की वह ऋचा , जिसे वर्ण-वयवस्ा का रदूलाधार माना जाता है । ऋचा इस प्कार है-
“ ब्राहणो असय मुखमासीद बािदू राजनयः ककृतः । ऊरु तदसय यद्‌वै्यः पद्यां शदू्ो अजायत ।।“
अर्थात् “ ब्राहण इस विराट् ( समाज ) का मुख है , क्हरिय बाहु है , वै्य उरिु ( जंथा ) और शदूद्र पैर के रूप में प्हसद् है ।“ सातवलेकर जी
25 नवमबर 1949 को संविधान सभा में दिए गए उनके भाषण की प्ासंगिकता और सार्थकता आज तब से और अधिक है , ्योंकि चार दशकों के इस अंतराल ने , उस भाषण में वय्त की गई उनकी सभी आशंकाओं को , दुर्भागयवश , सही लसद् कर दिया ।
ने कहा कि “ इसमें आलंकारिक रीति से वणषों के करषों का निरुपण है । शदूद्र को इस मंरि में महुत ऊंची पदवी दी गई है । जिस प्कार सारा शरीर पैरों के आश्रित रहता है , उसी प्कार यह सारा समाज शदूद्र के आश्रित रहता है ।“ शदूद्र रूपी पैरों की उपेक्ा करने के कारण ही ्भारतीय समाज पंगु हो गया ।
उद्त ऋचा में वर्ण की उतरहति को मानव शरीर के हवह्भन्न अंगों के संबंधों के रूप में प्सतुत किया गया है । इसमें शरीर के अवयवों की पारसररिक श्रेष्ठता का निपुण नहीं , बल्क शरीर के हवह्भन्न अंगों की अनयोनयाश्रयता और परसरर रदूरकता को दर्शाया गया है । लेकिन यह ्भी सतय है कि इसी ऋचा को एक वर्ण की ्दूसरे पर श्रेष्ठता हसद् करने के लिए बार-बार उद्‌धृत किया जाता रहा है ।
वर्ण-वयवस्ा चार वणषों तक ही सीमित नहीं रहीं , बल्क शदूद्र के बाद अतिशदूद्र या असरृ्य के रूप में पंचम वर्ण की ्भी समावेश हो गया
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