वहां जबरन धर्मपरिवर्तन आम बात है । बांगिादेश एवं पाकिसतान में रहने वाले हिनदुओं में आज भी 95 प्रतिशत दलित हैं ।
देश में जातिवादी और अलपसंख्कवादी राजनीति के गठजोड़ को सत्ा प्रासपत का अचूक फार्मूला मान लिया गया है । वर्तमान सामाजिक परिदृश् पर निगाह डाली जाए तो कांग्ेस ,
वामपंथी और उनके सहयोगी दल आरक्ण के हथियार से दलित एवं तुष्टिकरण की नीति से मुससिम वर्ग को भ्रमित किए हुए हैं । आरक्ण से दलित वर्ग को सरकारी नौकरी एवं तुष्टिकरण से मुससिम वर्ग को छिटपुट लाभ देकर दोनों वर्ग को तुचछ राजनीति के दाव-पेंच में फंसा कर सत्ा का खेल दशकों तक खेला गया और वासतलवकता में दोनों वगगों को हितकारी योजनाओं एवं प्रोतसािन से सदैव दूर रखा गया , जिससे वह उनके वोट बैंक के रूप में अपने हितों को
पूरा करने की राह तकते रहे । इन दोनों वगगों का उतथान आर्थिक और शैक्लणक सशसकतकरण पर ध्ान ही नहीं दिया । राजनीतिक खिलाडी कभी यह नहीं चाहेंगे कि उनका विकास हो , क्ोंकि यदि वह पढ़-लिख कर विकास के पथ पर आगे चलेंगे तो उनको लम्थ्ा और भ्रमित करने वाले खेल का भंडाफोड़ हो जाएगा ।
सत्ािोभी राजनीतिज्ों के लिए तर्क , तथ्य एवं आंकड़ों का कोई महतव नहीं होता है । उनिें लगता है कि वोट बैंक राजनीति तकगों , तथ्यों और आंकड़ों पर नहीं , वोटों की संख्ा पर चलती है । इसलिए वर्तमान राजनीति का मुख् कारण नेताओं द्ारा दलितों एवं मुससिमों का हित करना नहीं अपितु उनिें एक " वोट बैंक " के रूप में देखना हैं । ऐसे में हर राजनीतिक पारटी दलितों को लुभाने की कोशिश करती दिखती है । सव्ं को धर्मनिरपेक् कहने वाले इन नेताओं का मानना
है कि दलितों और मुससिमों के वोट बैंक को संयुकत कर दे तो 35 से 50 प्रतिशत वोट बैंक आसानी से बन जाएगा और उनकी जीत सुलनसशित हो सकेगी ।
सत्ा हासिल करने के लिए विदेशों से मिलने वाले फंड की मदद से दलितों को नागरिकता संशोधन कानून , राष्ट्रीय नागरिकता रजिसरर और जाति जनगणना के नाम पर भ्रमित किया जा रहा है । अफवाहों और गलत जानकारी के आधार पर ऐसा दिखाने का प्रयास किया जा रहा है कि मुसलमान समुदाय दलितों का सबसे बड़ा हितैषी हैं । सत् यह है कि यह सब वोट बैंक की राजनीति है और दलितों और मुसलमानों के समीकरण को बनाने का प्रयास सिर्फ इसलिए किया जा रहा है , जिससे न केवल देश को अससथर किया जा सके बसलक हिंदुओं कि एकता को भी तोडा जा सके । वर्तमान में कांग्ेस और उसके सहयोगी दलित और मुससिम वोट की दम पर अपनी राजनीतिक महतवाकांक्ा को पूरा करने की जुगत करने में लगे हुए हैं ।
भारत को सवतंत् हुए सात दशक से अधिक समय हो चुका है । इस दौरान सर्वाधिक समय तक सत्ा कांग्ेस के पास रही । कांग्ेस के पास इस प्रश्न का उत्र नहीं है कि गरीबी हटाओ का नारे पर कथित रूप से काम करने वाली कांग्ेस दलितों एवं मुसलमानों के मध् फैली गरीबी को समापत क्ों नहीं कर पाई ? दलितों की बड़ी जनसंख्ा आज भी गरीबी में जी रही है , अनपढ़ है और शोषण का शिकार बन रही है । क्ा कभी विचार किया गया कि आरक्ण जैसे मजबूत कनधों के सहारों के बावजूद भी ऐसा क्ों है कि दलित या अन् समाज अभी भी शोषित है और उसे अपने अधिकारों के लिए लड़ना पड़ रहा है ? ऐसे में दलित समाज को यह समझना ही होगा कि आखिर उसके नाम पर कब तक उनके तथाकथित नेता सत्ा का सवाद लेते रहेंगे । अगर दलित समाज ने ऐसे नेताओं का बहिष्कार नहीं किया जिनके लिए वह सिर्फ वोट बैंक से ज्ादा कुछ नहीं है , तो दलित वर्ग फिर एक बार गहरी खाई में इस तरह गिरेगा , जिसे निकलना भविष्य में आसान नहीं होगा । �
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