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जाति-धर्म की राजनीति बना विपषि का हथियार
धममेंद्र मिश्रा ns
श में पहली बार 2014 में पूर्ण बहुमत से भाजपा सरकार बनने के बाद से प्रधानमंत्ी नरेंद् मोदी के नेतृतव वाली सरकार लगातार अपने विकासवादी एजेंडे पर काम कर रही है । कांग्ेस और उसके सहयोगियों की बांटो और राज करो वाली राजनीति को मोदी सरकार की विकासवादी राजनीति लगातार जिस तरह से चुनौती देती आ रही है , उससे कांग्ेस और उसके सहयोगियों के सामने अपने वजूद को बचाये रखने का संकट पैदा हो गया है । अपने दस वर्ष के कार्यकाल में मोदी सरकार ने विकास के जो भी काम किए , उससे देश के अंदर जाति-प्रजाति , धर्म-संप्रदाय की राजनीति पर एक तरह से अंकुश लग चुका है । लेकिन देश की राजनीति में हो रहे आमूलचूल परिवर्तन को कांग्ेस और उसके सहयोगी , जिनमें वामपंथी दल भी शामिल हैं , पचा नहीं पा रहे हैं । यही कारण हैं कि कांग्ेस , वामपंथी और उनके सहयोगी देश को एक बार फिर जाति- प्रजाति , धर्म-संप्रदाय की राजनीति में झोंकने की पूरी कोशिश करने में लगातार जुटे हुए हैं । नागरिकता संशोधन कानून के साथ ही राष्ट्रीय जनसंख्ा रजिसरर के नाम पर आम जनता को जाति और धर्म के आधार पर बांटने के लिए कांग्ेस और उसके सहयोगी दिन-रात कोशिश कर रहे हैं । साथ ही अब जाति जनगणना के नाम पर हिनदू समाज को खंडित करने की भी पुरजोर कोशिश की जा रही है ।
नागिरकता संशोधन कानून के नाम पर जहां उसी कथित दलित-मुससिम गठजोड़ मुहिम शुरू हो चुकी है , जिसके कुपरिणाम पाकिसतान और बांगिादेश जाने वाले दलितों को अत्ािार और
बलात धर्मपरिवर्तन के रूप में भोगना पड़ा , वहीं नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में किए जा रहे कुप्रचार के माध्म से दलितों और मुससिमों को मोदी सरकार के विरोध में खड़ा करने की कोशिश की जा रही है । दलित-मुससिम गठजोड़ के लिए जोर लगा रही कांग्ेस , वामपंथी पार्टियां और अन् भाजपा विरोधी दल एवं संगठन , सभी का इस गठजोड़ की आड़ में केवल यही सपना है कि किस तरह से प्रधानमंत्ी नरेंद् मोदी को सत्ा से हटाकर सत्ा हासिल की जा सकती है ।
देश में मोदी सरकार के गठन के बाद सभी ने देखा है कि किस प्रकार से विभिन्न विशवलवद्याि्ों में अफजल गुरु और याकरूब मेनन के ‘ शहादत दिव ’ मनाए गए और कशमीर में अलगाववाद के समर्थन में नारेबाजी की गयी । तथाकथित बुद्धिजीवियों द्ारा ऐसी तमाम घटनाओं को दलित-विमर्श के नाम पर वैधता देने का प्रयास भी किया गया । यह सिलसिला लगातार जारी है । कुछ विचारक लेख लिखकर यह साबित कर रहे कि किस प्रकार दलित- मुससिम गठजोड़ एक सवाभाविक प्रलरिया है । दलितों के नाम पर भारत की बर्बादी के नारों और अराजकतावाद को जायज ठहराने का शोर के बीच बसपा सुप्रीमो मायावती तक को कहना पड़ा कि कनिै्ा जैसे लोग खुद को झूठ ही दलित बताकर फजटी दलित-विमर्श कर रहे हैं । इन नेताओं के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि क्ा एक बार फिर दलितों का कतिेआम करा कर हिनदू समाज को कमजोर करने की तैयारी की जा रही है ?
सच यह भी है कि दलित-मुससिम एकता की पोल तो पाकिसतान बनने के दौरान ही खुल चुकी थी । साथ ही वरगों पहले हैदराबाद रियासत
में रजाकारों द्ारा कतिेआम और जबरन धर्मपरिवर्तन का जो खुला खेल हुआ था , उसमें भी सबसे ज्ादा दमन दलित और समांतर जतियों का ही हुआ थाI दुर्भाग् की बात यह है कि एक बार फिर वही हैदराबाद वाले ही सबसे ज्ादा ‘ दलित-मुससिम ’ राग अलाप रहे हैं । आज भी पाकिसतान एवं बांगिादेश में हिंदुओं पर होने वाले अत्ािारों की जो खबरें आती हैं उनमें अधिकतर पीलड़त दलित ही होते हैं । बांगिादेश में भी दलितों के हालात कोई कम बुरे नहीं हैं ।
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