प्यार-मोहब्बत से बबल्कुल अंजान हुआ करते थे ।
हाथ पकड़के चलते चलते आगे बढ़ जाया करते थे ,
नादान बहुत थे छोटी-छोटी बातों पर लड़ जाया करते थे ।
मैं अक्सर उसको मोटी कहकर ब ल
ाया करता था ,
किर भी वो ना सुनती तो पगली कहकर चचल्लाया करता था ।
वो द ध सी गोरी थी और मैं कोयले सा काला था ,
पर उसके सलए मैं ही कन्है या मैं ही म र ु लीवाला था ।
वो जातत की थोड़ी ऊूँची थी पर मैं उससे भी ऊंचा था ,
प्यार में कोई समलावट नही थी प्यार बबल्कुल सुचा था ।
हमारे साथ हमारे कहातनयां भी जवां हो रहे थे ,
हमारे इश्क़ के चचे अब सरे आम हो रहे थे ।
किर कुछ मजब ररयां ने घर हमारा तबाह कर ददया ,
वादे थे साथ जीने के पर वक़्त से पहले ज द
ा कर ददया ।
अपनी शायरी में अब भी जजक्र उसका करता ह ूँ ,
द र भले ह ूँ उससे पर खुद से ज्यादा कफ़क्र उसका करता ह ूँ ।
बेदाग रहे वो रुजक्मणी के जैसे लांछन ना लगाए कोई सीता की तरह ,
और एक कहानी मैंने सुना दी बबल्कुल कववता की तरह ।
ककसी स ब
ह
मान लो ककसी सुबह तुम जागो और हम ना समले ,
त म
ढ ं ढो हर जगह हर तरि पर हम ना समले ।