Mai aur Tum मैं और तुम | Page 3

प्यार-मोहब्बत से बबल्कुल अंजान हुआ करते थे । हाथ पकड़के चलते चलते आगे बढ़ जाया करते थे , नादान बहुत थे छोटी-छोटी बातों पर लड़ जाया करते थे । मैं अक्सर उसको मोटी कहकर ब ल ाया करता था , किर भी वो ना सुनती तो पगली कहकर चचल्लाया करता था । वो द ध सी गोरी थी और मैं कोयले सा काला था , पर उसके सलए मैं ही कन्है या मैं ही म र ु लीवाला था । वो जातत की थोड़ी ऊूँची थी पर मैं उससे भी ऊंचा था , प्यार में कोई समलावट नही थी प्यार बबल्कुल सुचा था । हमारे साथ हमारे कहातनयां भी जवां हो रहे थे , हमारे इश्क़ के चचे अब सरे आम हो रहे थे । किर कुछ मजब ररयां ने घर हमारा तबाह कर ददया , वादे थे साथ जीने के पर वक़्त से पहले ज द ा कर ददया । अपनी शायरी में अब भी जजक्र उसका करता ह ूँ , द र भले ह ूँ उससे पर खुद से ज्यादा कफ़क्र उसका करता ह ूँ । बेदाग रहे वो रुजक्मणी के जैसे लांछन ना लगाए कोई सीता की तरह , और एक कहानी मैंने सुना दी बबल्कुल कववता की तरह । ककसी स ब ह मान लो ककसी सुबह तुम जागो और हम ना समले , त म ढ ं ढो हर जगह हर तरि पर हम ना समले ।