द ब
ारा मत कहना म झ
े अपनी जान ।
माफ़ी मांगी मैने पकड़के कान ,
अब नही कह ं गा तुझे अपनी जान ।
किर मैंने प छा कक त म्
हे क्या कहकर ब ल
ाऊूँ ?
ररश्ता क्या है हमारा लोगो को क्या बतलाऊूँ ?
वो बोली तुम मुझे अपना दोस्त बता सकते हो ,
छ नहीं सकते बाकी म झ
पर हक़ जता सकते हो ।
अब मेरे चेहरे पे एक फ़ीकी म स्
कान थी ,
भरोसा नही हो रहा कक ये मेरी ही जान थी ।
बड़ी शान से हम इसे ही मोहब्बत बताया करते थे ,
बेवज़ह इसपर ही हक़ जताया करते थे ।
छोटी सी आह में हम परे शान हो जाया करते थे ,
ब ल
ाने पर हर काम छोड़कर जाया करते थे ।
बात अलग थी कक कभी कभी लड़ते थे ,
ख़ुद से ज्यादा हम इनसे प्यार करते थे ।
मन में जजतने वहम थे सब साि ककया ,
और कहा-जा इस दफ़ा मैने तुझे माफ़ ककया ।
इतना कहकर मैं जैसे ही पीछे मुड़ा ,
मैं धम्म से बबस्तर से नीचे चगरा ।
अब पता चला कक ये तो एक सपना था ,
पर सपने में भी अब वो कहाूँ अपना था।