Mai aur Tum मैं और तुम | Page 18

द ब ारा मत कहना म झ े अपनी जान । माफ़ी मांगी मैने पकड़के कान , अब नही कह ं गा तुझे अपनी जान । किर मैंने प छा कक त म् हे क्या कहकर ब ल ाऊूँ ? ररश्ता क्या है हमारा लोगो को क्या बतलाऊूँ ? वो बोली तुम मुझे अपना दोस्त बता सकते हो , छ नहीं सकते बाकी म झ पर हक़ जता सकते हो । अब मेरे चेहरे पे एक फ़ीकी म स् कान थी , भरोसा नही हो रहा कक ये मेरी ही जान थी । बड़ी शान से हम इसे ही मोहब्बत बताया करते थे , बेवज़ह इसपर ही हक़ जताया करते थे । छोटी सी आह में हम परे शान हो जाया करते थे , ब ल ाने पर हर काम छोड़कर जाया करते थे । बात अलग थी कक कभी कभी लड़ते थे , ख़ुद से ज्यादा हम इनसे प्यार करते थे । मन में जजतने वहम थे सब साि ककया , और कहा-जा इस दफ़ा मैने तुझे माफ़ ककया । इतना कहकर मैं जैसे ही पीछे मुड़ा , मैं धम्म से बबस्तर से नीचे चगरा । अब पता चला कक ये तो एक सपना था , पर सपने में भी अब वो कहाूँ अपना था।