हसतांतरित होने लगी । लगान को एकाएक तीन गुणा कर दिया गया । अंग्रजों ने लगान वसूलने की जिममेवारी सथानीय जमींदारों को दी । इस क्रम में संताल जनजाति के लोगों ने कर्ज लेना शुरू कर दिया , जिससे शुरूआती दौर में राहत तो जरूर मिली परंतु धीरे- धीरे कर्ज के जाल में फंस गये । कर्जदाताओं ने चालबाजी कर इन पर मुकदमा भी किया , अधिकांश मुकदमें में संतालों की हार हुई । इस घटना के लोगों का ब्रिटिश नयायपालिका से विशवास पूर्णतया उठ गया और खुद की अकसमता और सुरक्ा के लिए विद्रोह का रूख अकखतयार किया । 30 जून 1855 में भोगनाडीह में संथालों की एक सभा हुई जिसमें 400 गांवों के पचास हजार से अधिक लोग एकत् हुए सिद्धो-कान्हो की अगुआई में संथालों ने मालगुजारी नहीं देने के साथ ही ' ' करो या मरो , अंग्रेज हमारी माटी छोड़ो ' का एलान किया । इसके लिए शालवृक् की टहनी घुमाकर क्रांति का संदेश
घर-घर पहुंचा दिया गया । संतालों ने पहला आक्रमण उनके विरूद्ध किया जिनहोंने उनहें धोखा देकर अकूत धन अर्जित किया । आक्रमण में पाकुड़ के लिट्टीपाड़ा और बरहेट के कुसमा के महाजनों को लूटा गया । धीरे – धीरे आंदोलन बढ़ते – बढ़ते गया । अंग्रेजों की तरफ नेतृतव जनरल ललॉयर्ड ने किया जो आधुनिक हथियार और गोला बारूद से परिपूर्ण थे । इस मुठभेड़ में महेश लाल एवं प्रताप नारायण नामक दरोगा की हतया कर दी गई , जिससे अंग्रेजों में भय का माहौल बन गया । शासन पर विजय से उतसालहत एक दिन 50,000 संथाल वीर अंग्रेजों को मारते-काटते कोलकाता की ओर चल दिये । यह देखकर शासन ने मेजर बूरी के नेतृतव में सेना भेज दी । पांच घंटे के खूनी संघर््य में शासन की पराजय हुई और संथाल वीरों ने पाकुड़ किले पर कबजा कर लिया । संथालों के भय से अंग्रेजों ने बचने के लिए पाकुड़ में मार्टिलो टावर का निर्माण कराया था जो आज भी झारखंड के पाकुड़ जिले में कसथत हैं । इस युद्ध में सैकड़ों अंग्रेज सैनिक मारे गये जिससे कमपनी के अधिकारी घबरा गये । अतः पूरे क्ेत् में ‘ मार्शल ललॉ ] लगाकर उसे सेना के हवाले कर दिया गया । अंग्रेज सेना के पास अतय आधुनिक हथियार थे , जबकि संथाल वीरों के पास तीर- कमान जैसे परमपिागत हथियार । अतः बाजी पलट गयी और चारों ओर खून की नदी बहने लगी । विद्रोहियों पर नियंत्ण पाने के लिए क्रूरतापूर्वक कार्रवाई की जा रही थी और तभी बहराइच में चांद और भैरव को अंग्रेजों ने मौत की नींद सुला दिया , तो दुसरी तरफ अंग्रेजों ने फूट डालो राज करो नीति का अनुसरण करते हुए सिद्धो और कानहू को पकड़ कर भोगनाडीह गांव में ही पेङ से लटका कर 26 जुलाई 1855 फांसी दे दी गई । इस युद्ध में लगभग 20 हजार वनवासी / आदिवासी वीरों ने प्राणाहुति दी । संथाल हूल के महानायक सिदो – कानहू संताल परगना की मिट्टी में सदा के लिए सो गए परंतु विरोध और सवतंत्ता की अंतहीन कृति छोड़ गए । आज भी पंचकठिया का वह बरगद का पेड़ अंग्रेजी सत्ा के खिलाफ सिदो-कानहू का गौरवा गाथा सुनाता है । भले ही सशरीर सिदो – कानहू मौजूद न हो लेकिन उनकी
यश और कीर्ति आज भी जिंदा है , जो पीढ़ी दर पीढ़ी को सवाधीनता के संघर््य से परिचय करवाती है ।
प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने हूल युद्ध के बारे में अपनी पुसतक ‘ एनलस ऑफ रूरल बंगाल ’ में लिखा है , ‘‘ संथालों को आतमसमर्पण जैसे किसी शबद का ज्ान नहीं था । जब तक उनका ड्रम बजता रहता था , वे लड़ते रहते थे . जब तक उनमें से एक भी शेर् रहा , वह लड़ता रहा । ब्रिटिश सेना में एक भी ऐसा सैनिक नहीं था , जो इस साहसपूर्ण बलिदान पर शर्मिनदा न हुआ हो ।‘ संथाल परगना में 1855 में हुए विद्रोह को कार्ल मा्स्य ने भी अपनी किताब ‘ नोटस ऑफ इंडियन लहसट्री ’ में ‘ जनक्रांति ’ माना है । संथाल हूल का इतना वयापक असर था कि ब्रिटिश के अखबारों ने भी इस विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के लिए आंख खोलने वाला बताया । 1856 के इलसट्रेटेड लंदन नयूज अखबार में एक सकेच छपा था , जिसमें अंग्रेजों से संथालों का संघर््य दर्शाया गया था । इस विद्रोह को कुचलने वालों में शामिल ब्रिटिश सेना के मेजर जर्विस ने उस समय लिखा था कि उन विद्रोहियों को जैसे समर्पण का अर्थ ही नहीं पता था । जब तक उनके नगाड़े बजते रहते , वे हमारी गोलियों के भी सामने खड़े रहते । नगाड़े बंद होते तो वे कुछ पीछे हटते । नगाड़े फिर शुरू होते ही फिर लड़ाई शुरू हो जाती । प्रसिद्ध इतिहासकार बीपी केशरी कहते हैं कि संथाल हूल ऐसी घटना थी , जिसने 1857 के संग्राम की पृषठभूमि तैयार की थी । इस आंदोलन के बाद ही अंग्रेजों ने संथाल क्ेत् को वीरभूम और भागलपुर से हटा दिया । 1855 में ही संथाल परगना को ‘ नलॉन रेगुलेशन जिला ’ बनाया गया । क्ेत् भागलपुर कमिश्नरी के अंतर्गत था , जिसका मुखयालय दुमका था । 1856 में पुलिस रूल लागू हुआ । 1860-75 तक सरदारी लड़ाई , 1895- 1900 ई . तक बिरसा आंदोलन इसकी अगली कड़िया थीं । दुर्भागय की बात है कि जिस हूल में दस हजार से अधिक सेनानी बलिदान हुए उसे किस प्रकार षड़यंत्पूर्वक संथाल विद्रोह तक सीमित कर दिया गया , जबकि यह विद्रोह देश की आजादी के लिए ब्रिटिश सत्ा के विरूद्ध लड़ी गई । �
tqykbZ 2024 35