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संथाल परगना से जगी थी स्ाधीनता की अलख
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रतीय सवाधीनता संग्राम में जनजातीय समाज की अग्रणी भूमिका रही है । जनजातीय नायकों ने अपनी मातृभूमि को विदेशी दासता से मु्त कराने के लिए अपना संपूर्ण नयोछावर कर दिया । सवतंत्ता संग्राम में संथाल हूल का विशिषट सथान है । 169 वर््य पहले 30 जून 1855 में ततकालीन बंगाल प्रेसीडेंसी वर्तमान में झारखंड के संताल परगना में सिदो-कानहू के नेतृतव में किया गया हूल ने 1857 के सवतंत्ता संग्राम की पीठिका
तैयार की थी । हूल का अर्थ होता है अनयाय के विरूद्ध क्रांति का आह्ान यानी उलगुलान , विद्रोह का आह्ान , आंदोलन का शंखनाद । 1857 के सवाधीनता संग्राम को इतिहासकारों ने सिपाही विद्रोह तक सीमित करने का प्रयास किया ताकि इस अखिल भारतीय आंदोलन की जवाला को विद्रोह की यूरोपीय परिभार्ा में सीमित किया जा सके , इसी प्रकार इतिहासकारों ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हुए भारतीय सवाधीनता आंदोलन के सबसे बड़े सशसत् आंदोलन ‘ हूल ’ को संताल विद्रोह तक सीमित कर उसकी महत्ा को कुचलने का प्रयास किया , जबकि सवाधीनता संग्राम में संथाल हूल एक ऐसी लड़ाई थी जिसने ब्रिटिश सेना को नाकों चने चबा दिये थे । जिस वनवासियों / आदिवासियों को अंग्रेजी असभय और जंगली मानते थे उसी के अनुपम लाल सिदो - कानहू के नेतृतव में किये गये हूल ने कंपनी सरकार को कई बार भाग खड़े को मजबूर कर दिया ।
अंग्रेजों के खून से शौर्य गाथा लिखने वाले सिदो – कानहू का जनम झारखंड कसथत राजमहल के पहालड़यों से घिरा साहेबगंज जिला के बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गांव में हुआ । सिदो का जनम 1820 एवं कानहू का जनम 1832 में हुआ । इनके और दो भाईयों का नाम चांद और भैरव थे । इनके अलावे इनकी दो बहने भी थीं जिनका नाम फूलो मुर् मू और झानो मुर् मू था । सिदो -कानहू के माता- पिता का नाम चुनु मुर् मू और सोलन मुर् मू था । सिदो -कानहू , चांद- भैरव एवं फूलो- झानों द्ािा 1855-56 में ब्रिटिश सत्ा , साहूकारों , वयापारियों और जमींदारों के अतयाचारों के खिलाफ ब्रिटिश सरकार के खिलाफ किये गये विद्रोह को संताल हूल के नाम से जाना जाता है । ऐतिहासिक दसतावेजों से जानकारी मिलती है कि 19 वीं सदी के मधय में अंग्रेजों ने संताल जनजातियों के भू- सवालमयों के लिए कड़े नियम बना दिये , जिस कारण बड़ी मात्ा में जनजातियों की भूमि
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