July 2024_DA | Page 32

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समरसता के लिए प्रयास किए गए थे और आज भी उसे परमावशयक समझकर एक आवाहन का सवरूप प्रदान किया जा रहा है । अतएव कहा जा सकता है , कि सामाजिक समरसता पूर्णरूपेण भारतीय चिनतन है ्योंकि प्राचीन भारतीय सामाजिक वयवसथा में धर्म यानी वैदिक सनातन हिनदू धर्म का तातपय्य " धारण करने " से है । सामाजिक नियम-कानून को धारण करने से एक वयवकसथत समाज का सवयमेव संचालन समभव होता है , ऐसे में धर्म सवयं सामाजिक समरसता का पर्याय है । उत्िापथ के माधयम से शेर् विशव में इसका प्रचार-प्रसार मुखयतः भारतीय वयापारियों के आवागमन से हुआ और बाद में कुछ विदेशी यात्ी भारत भ्रमण के लिए आए ; जैसे-फाह्यान , ह्नवेनसांग एवं मेगसथनीज आदि ने भी यहां की सामाजिक समरसता की प्रशंसा का उललेख अपने यात्ा-विवरणों में किया । भारतीय वयापारी अपनी विदेशी वयापारिक यात्ा एवं प्रवासों के समय अपने साथ पुजारी , ज्योतिषी , सेवक आदि के साथ अनेकों सहयोगियों को लेकर जाते थे और भारतीय प्रतिनिधि के रूप में वे , जो कुछ भारतीय जीवन- पद्धति पर आधारित लोक जीवन के आधार पर धर्म-कर्म-अनुषठान आदि करते थे , उसी संसकृलत की छाप वह विशव के अनयानय देशों में छोड़ भी आते थे और अनयानय देशों के मानव समाज उनमें से अपनी आवशयकता एवं पसनद के पक् को अपना लिया करते थे । परिणामसवरूप आज वर्तमान में विशव संसकृलत में भारतीय संसकृलत का दिगदश्यन होना एक प्रतयक् साक्य है ।
सामाजिक समरसता का भारतीय दृकषटकोण धर्म की अवधारणा से परिपूर्ण एवं सामाजिक नियमों एवं कानून के धारण करने से है । सामाजिक नियम-कानून को धारण करना धर्म है , ्योंकि इससे एक वयवकसथत समाज का सवयमेव संचालन समभव होता है । ऐसे में धर्म सवयं सामाजिक समरसता का पर्याय है । धर्म के दस लक्ण ( धृति , क्मा , दम , असतेय , शौच , इकनद्रय-निग्रह , आधयातम ज्ान , विद्ा , सतय तथा अक्रोध ) को यदि क्रमशः विश्लेषित करके देखें तो यह सपषट हो जाता है , कि सामाजिक
समरसता की भारतीय वयाखया ( परिभार्ा अथवा अर्थबोध ) धर्म के इनहीं दस लक्णों से समबकनधत है । उदाहरणार्थ धृति यानी धैर्य को यदि सर्वानुकूल एवं सर्वहिताय बनाया जाय तो अधर्म का अकसततवबोध होगा ही नहीं और सामाजिक समरसता से समपूण्य मानव समाज सराबोर रहेगा ही । ऐसे ही अनय लक्णों को सर्वप्रिय एवं सर्वलाभदायक सवरूप में सवीकार किया जाए तो समाज में लवर्मता का नाम नहीं रहेगा और सामाजिक समरसता की सथापना सवयं सथालपत हो जाएगी । अनय शबदों में कह सकते हैं कि सामाजिक समरसता का अर्थ अथवा उसकी परिभार्ा हिनदू धर्म के दस लक्णों को आतमसात् किए हुए है । हिनदूपरक सामाजिक समरसता से सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक , राजनैतिक और सांसकृलतक समरसता प्रापत की जा सकती है ।
सामाजिक दृकषटकोण में सामाजिक समरसता मानवीय मूलयों पर आधारित सामाजिक संगठन के सनदभ्य में सानुकूल एवं सार्थक परिणाम है ।
सामाजिक सुख-शाकनत की पृषठभूमि में सामाजिक समरसता एक समाजशासत्ाीय लवर्य है । यह आधुनिक समाजशासत् अथवा समाजविज्ान का एक नयायवादी एवं संवैधानिक शासत् का समग्र तथा शासत्ीय चिनतन है । यह दो या दो से अधिक लोगों को एक-दूसरे के सलन्कट लाने और आपस में समकनवत कर देने की प्राकृतिक एवं सवाभाविक प्रक्रिया है । संसार के सभी प्रकार के मानव समाज की सुदृढ़ता के लिए यह एक प्रशंसनीय आग्रह एवं आवशयक पहल है । सामाजिक समरसता की अनुशंसा के अनुमोदक भी अब यह मानने लगे हैं कि सामाजिक समबनधों को शाशवत एवं सुमधुर बनाए रखने के लिए सामाजिक समरसता शासत् एक कुंजी है । विशव भर में प्रापत प्रतयेक लवर्म , प्रदूलर्त एवं रूढ़िग्रसत मानव समाज को सर्वप्रिय बनाने और नवीन परिधान में सुसंगठित करने के लिए सामाजिक समरसता की अवधारणा एक अपिरहार्य धैर्य , सानतवना और विशवास है । सामाजिक समरसता
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