July 2024_DA | Page 31

अहम् भूमिका है और इसी के माधयम से वैकशवक मानव समाज का कलयाण हो सकता है । इस आधार पर देखा जाए तो सामाजिक समरसता की अवधारणा महत्वपूर्ण है और हमें भारतीय संसकृलत को रेखांकित करते हुए वैकशवक सामाजिक लवर्मताओं को खतम करने के लिए
आगे आना होगा । धयान यह भी रखना होगा कि सामाजिक समरसता का भाव जब तक प्रतयेक वयक्त में नहीं आ जाता , तब तक अनावशयक निम्नता-श्ेषठता के अभिमान-सागर में आकणठ डूबी हुई मानव के मनःकसथलत की जड़ता समापत नहीं हो सकेगी और सामाजिक लवर्मताओं को समापत करने के लिए समाज सुधारकों द्ािा किए जा रहे प्रयास सकारातमक परिणामदायी नहीं हो सकेंगे ।
सामाजिक समरसता की अवधारणा भौतिक एवं आधयाकतमक चिनतन धाराओं का एक महत्वपूर्ण पक् है । यह अवधारणा विशवबनधुतव
एवं वसुधैवकुटुमबकम् से अभिप्रेरित है । वैसे तो यह वैदिक भारतीय समाज के सवलण्यम सवरूप की वर्तमान कलपना का प्रतिबिमब है , जो वैकशवक रूप से संसार सा सभी प्रकार के मानव समाज , सभी काल खंड एवं सव्यत् के लिए उपयोगी है । देखा जाये तो आज मानव मूलयों के संिक्ण एवं समाज कलयाण के अभिचिनतन में समरसता ही मुखय केनद्र बिनदु है । उपनिवेशवादी , साम्राजयवादी , पूंजीवादी , तानाशाही शक्तयों की मनोवृलत् के लिए समरसता एक चुनौती है । सामयवादी , समनवयवादी , समानता-समतावादी , समाजवादी क्राकनतयों की सफलता के लिए समरसता एक शसत् है । सामाजिक समरसता , संगठन की शक्त है और लवर्मता उसकी निर्बलता । सामाजिक समरसता की अवधारणा प्राचीन भारतीय परिवारों में " अतिथि देवो भवः " के रूप में लवद्मान थी । गुरुकुलों की शिषय- मणडली में कोई लवर्मता नहीं थी । सामाजिक समरसता के प्रतीक सवामी विवेकाननद जैसी हकसतयों ने भारतीय सामाजिक समरसता के सनदेश को अमेरिका जैसे दूर-दराज के देशों तक ‘ अमेरिका के मेरे पयािे भाइयों एवं बहनों ’ के समबोधन से प्रसारित किया था । भारतीय समाज में कृलत्म लवर्मताओं के कारण पूर्वप्रलतकषठत सामाजिक समरसता का लोप होना दुःखद है । उसकी पुनसथा्यपना युग की मांग है , विशेर्तः भारतीय समाज एवं इसी प्रकार के लवर्मताओं एवं भेदभाव वाले विशव के अनय समाजों के लिए सामाजिक समरसता अति आवशयक है ।
भारतीय समाज की पूर्वकालिक समरसता प्रशंसनीय रही है । उसकी अवधारणा वैदिक हिनदू धर्म माने हिनदुतव के दस ततवों ( धृति , क्मा , दम , असतेय , शौच , इकनद्रय-निग्रह , धी , विद्ा , सतय तथा अक्रोध ) से अभिप्रेरित रही । इन ततवों के अनुकूलन में सामाजिक समरसता के वयापक प्रभाव का अनुमान एवं अवलोकन करने के बाद ही वाह्य शक्तयों ने भारत पर आक्रमण कर इन पर प्रतयक् रूप से प्रहार किया और भारत की समरसता को समापत करने में सफल रहे । आज भी यदि इन ततवों को सवसथ
एवं सवचछ मनःकसथलत से निरभिमानपूर्वक सुप्रलतकषठत कर दिया जाय तो भारतीय समाज में सामाजिक समरसता को सवतः सथालपत होने से कोई रोक नहीं सकता है ।
सामाजिक लवर्मता वाले संसार के किसी भी देश के लिए , जहां जातिवाद , प्रजातिवाद अथवा आर्थिक भेदभाव की सोच हो , वहां भारतीय सामाजिक समरसता दर्शन का सिद्धानत लनकशचत रूप से हितकर हो सकता है , इसे सवयं गैर भारतीय विदेशी समाजशाकसत्यों ने भी कुछ अलग चिनतनधाराओं के रूप में सवीकार किया है । मैकाइवर एवं पेज ने सामाजिक समरसता शासत् की अवधारणा को एक ‘ अमूर्त समाज वयवसथा ’ एवं ‘ सामाजिक समबनधों के जाल ’ के रूप में सवीकार किया है ।
सामाजिक समरसता की पकशचमी अवधारणा भारतीय चिनतनधारा की तुलना में बहुत सामानय दृकषटगोचर होती है । ऐसा इसलिए कि पकशचमी देशों में सामाजिक लवर्मता और भेदभाव का आधार जाति नहीं , बकलक अनयानय कारण जैसे रंग भेद , सभयता भेद , विकास सति , पनथ भेद एवं आर्थिक भेदभाव या आर्थिक समपन्ता और विपन्ता है । जहां पर इस प्रकार के भेदभाव हैं , वहां के विचारकों का दृकषटकोण भारत की ही तरह इसकी संसथापना के पक् में है और जहां लवर्मता एवं भेदभाव का दुर्गुण नहीं है , वहां समरसता के प्रति उदासीनता सवाभाविक है । अलग-अलग अवधारणाओं के कारण ही सवेदशी एवं विदेशी विचारकों द्ािा सामाजिक समरसता की प्रदत् परिभार्ाएं भी एक जैसी नहीं हैं ।
भारतीय दृकषट में सुख-दुख , अचछा-बुरा , लाभ-हानि , युद्ध-शाकनत , धर्म-अधर्म , नीति- अनीति , विशव शांति-आंतकवाद की भांति समरसता-लवर्मता भी एक महत्वपूर्ण चिनतन है । मानव समाज में गतिशीलता एवं निरनतिता के लिए सामाजिक समरसता ही एकमात् विकलप है । सवतंत्ता , समानता और सामाजिक नयाय की पृषठभूमि में सुख-समृद्धि की आकांक्ा-पूर्ति लनकशचत रूप से स्ेलहल सहिषणुता के मूलयपरक ‘ सामाजिक समरसता ’ पर ही आद्धृत है । इसीलिए दुषकि एवं दुर्गम परिकसथलतयों में भी सामाजिक
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