Jankriti International Magazine vol1, issue 14, April 2016 | Page 63

जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिका / Jankriti International Magazine( बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक)
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ISSN 2454-2725
जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिक
( बाबा साहब डॉ. भीमराव अ
ग़जल की दास्तान तक चललए । थोड़ी लम्बी उड़ान तक चललए ।।
इस बुलन्दी में कु छ नहीं हालसल । वक्त की हर ढलान तक चललए ।।
हया में कु छ न कह सकी मुझसे । उसकी ठहरी जबान तक चललए ।।
धुएं में लफ़क्र गर उड़ाना है । लचलम वाली दुकान तक चललए ।।
कु छ तकल्लुफ से खौफ बरपा है । मैकदो के ईमान तक चललए ।।
देखनी गर तुझे तासीर ए लहर । नदी में भी उफान तक चललए ।।
सालजशें मुल्क तोड़ देने की । दुश्मनों के मकान तक चललए ।।
गर लमटाने का हौसला तुझमे । तो यहां खानदान तक चललए ।।
लसतम लहरों के रोकते जज्बे । ललए हसरत कटान तक चललए ।।
पस्त होकर वो जान देता है । ददे मंजर लकसान तक चललए ।।
दौलत ए लहन्द के लुटेरे जो । उनके ऊं चे मचान तक चललए ।।
पराये मुल्क से उसकी वफादारी नहीं जाती । लहू गर हो बहुत गन्दा तो गद्दारी नहीं जाती ।।
वतन के कालतलों से ये जमाना हो गया वालकफ । मगर क़ानून घायल हो तो लाचारी नही जाती ।।
अमन लजन्दा रहे या ख़ाक हो जाए फसानों में । लसयासत की जुबााँ से अब तो बीमारी नहीं जाती ।।
जेहन दारों से रोजी छीन बैठे हैं लसयासत दां । है सीना तान के बैठी ये बेकारी नही जाती ।।
चमन तकसीम करने का इरादा जो ललए बैठा । रोजे में कबूली उसकी इफ़्तारी नहीं जाती ।।
बहुत टुकड़ों में तुमने काटना चाहा हमे अक्सर । लतरंगे से लमली मुझको ये खुद्दारी नहीं जाती ।।
वो दहशत गदद लहन्दू न मुसलमााँ न ईसाई है । हुकू मत हो जो शैतानी तो मक्कारी नहीं जाती ।।
तू लहंदुस्तान से आजाद होने का तकाजा रख । नज़र से लगर के भी बेशमद मुख्तारी नही जाती ।।
मदरसे जो पढ़ाते पाठ दहशत गदद का लदल्ली । ररयायत से कभी इनपर महामारी नहीं जाती ।।
वो लजम्मेदाररयों का हर लबादा फें क बैठा है । नौकरी यू ं बड़े सस्ते में सरकारी नहीं जाती ।।
काललख रोज धो चेहरे से पर लमटती नहीं है ये । बयानों को बदलने से तो दुस्वारी नहीं जाती ।।
होश में आ शहीदों से गुनाहों पर तू कर तौबा ।। दुश्मन ए लहन्द तेरी क्यू ाँ नशाकारी नहीं जाती ।।
वर्त्तमान के युवा पीढी को सम्भव है याद हो की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती” | क्तिल्म उपकार के इस गीत के गी गीत के दृश्य क्तिल्माये हो, ये तो वे ही जाने मग
व तमान गवाह है – जब देश का क्तकसान प्र हों | ऐसे में हेरािे री से प्राप्त कु छ एकड़ जमीन क क्तमल रहे हों और देखते ही देखते कं गाल भी पाताल तक को पानी के नाम पर कं गाल बना क्त
भारत जैसे कृ क्तष-प्रधान देश में क्तकसानों की है – पहले का भारत ऋक्तष प्रधान देश था, बाद हो गया |
क्तकसानों को अन्नदाता से अलंकाररत करन तरह खींच-खींच खानेवाले | मान-पत्र प्रदान
प्रस्तुत करने में जरा भी शमत महसूस नहीं कर बचता ही क्या है?
भारतीय संस्कृ क्तत के उस उद्घोष का“ जो उम्मीद के छााँव में क्तदन गुजारने को क्तववश हो र
हमारे धमतगुरुओं ने भी यही कु छ क्तसखाया-“ रक्तहमन गजधन वाक्तजधन
जब आवै संतोष धन सब धन धुरर“ सन्तोषम परमं सुखम | क्तवश्वासो िल दाय
हमें उल्लू बनाकर खुद अपना उल्लू सीधा कर
छु टभैये हों या नामी नेता, या अक्तभनीत अक्त महामारी और आक्तथतक दुकानदारी | कहीं चले लेना है तो लो वरना खाली हाथ वापस जाओ
जहााँ लोकतंत्र के नींव में ही स्वाथतजन्य घपला सकता है क्तक –“ एक तो करेला स्वयं तीता उस या आत्महत्या कररये |
अजी, यहााँ क्या रखा है? जन्नत में हूर के भी मरना पड़ेगा | व तमान में मरने से कौन नहीं मैं तो कहता हूाँ तुम उससे ज्यादा, आगे बढकर
Vol. 2, issue 14, April 2016. वर्ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016. Vol. 2, issue 14, April 2016.