जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिका / Jankriti International Magazine( बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक)
ISSN 2454-2725
जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिक
( बाबा साहब डॉ. भीमराव अ
महेश कटारे सुगम की ग़ज़लें
न नाटक में नयापन न रोचक ही समापन
कं टीली वातााएं नज़र में खुरदुरापन
व्यवस्था सोख बैठी ख़ुशी का सब हरापन
ककसी की कज़ंदगी है ककसी का अधमरापन
है शाकमल चाहतों में सुखों का भुरभुरापन
सुशोकभत कर रहा है ककसी को बेहयापन
बताओ कब कमटेगा कसयासी दोगलापन
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शब्द अक्सर उछाल देता ह ूँ एक मंज़र में ढाल देता ह ूँ
दोस्तों शैर मैं नहीं कहता ददा अपना कनकाल देता ह ूँ
गाकलयां देते हैं देने वाले मैं उन्हें हूँस के टाल देता ह ूँ
कदल मेरा ददा गुनगुनाता है और मैं उस पै ताल देता ह ूँ
हौसला कजसका पस्त होता है जाके उसको संभाल देता ह ूँ
मशकवरा जब भी मांगता कोई एक उम्दा ख़याल देता ह ूँ
सोचने के कलए ज़माने को रोज़ नए नए सवाल देता ह ूँ
............................. कनमंत्रण फू ल जैसे हैं स्वागत शूल जैसे
कशकवर आतंक वाले खुले स्कू ल जैसे
मज़हब हैं या मुसीबत बने प्रकतकू ल जैसे
धमाके हो रहे हैं कहली है चूल जैसे
बहुत पछता रहे हैं हुई हो भूल जैसे
.............................. नहीं पहुंची ककसी मज़लूम के वेवस कठकानों तक कसमट कर रह गयी सारी तरक्की बेईमानों तक
पढ़े जब आयतें मकस्जद तो मंकदर को मज़ा आये पहुूँचना चाकहए आवाज़ घंटी की अज़ानों तक
कदखाया जा रहा है कज़ंदगी को इश्तहारों में सुबूते कज़ंदगी अब कै द है के वल दुकानों तक
सदी अट्ठारवीं की ओर ही ले जा रहे हमको वो रखना चाहते सबको कु रआं, वेदों, पुरानों तक
गए राजा कसयासत में नए सामंत आ बैठे कसमट कर रह गयी सत्ता सुगम ऊं चे घरानों तक...................................
मदा मानू ंगा उसे समझो ज़रा तफ्सील से जो कबना कपड़े उतारे आएगा तहसील से
रात है काली अूँधेरी कोई जुगनू भी नहीं कु छ नहीं होगा हमारी इस बुझी कं दील से
कजस्म से ही कमल रही है दाल, रोटी और दवा लग रहे मंज़र तुम्हें बेशक बहुत अश्लील से
गंदगी ही गंदगी हैं तलहटी में दोस्तों कोई भी मोती न कनकलेगा सुनहरी झील से
काटती है काटने दो फै क भी सकते नहीं हो गया है ज़ख्म चप्पल की पुरानी कील से......