Jankriti International Magazine vol1, issue 14, April 2016 | Page 58

जनकृति अंिरराष्ट्रीय पतिका/Jankriti International Magazine ISSN 2454-2725 (बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक) जनकृति अंिरराष्ट्रीय पतिका/Jankriti International Magazine ISSN 2454-2725 (बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक) तेरा / णपला जदण-सदण चेहरा णकन्तु मेरे प्राण की णनणध / ऄश्रु खारे धो गए हैं ।।‛ णजदं गी की मजार पर जलता ऄब बझु ा / तब बझु ा णचराग है णजसके सीने में चाहें / जल-जल कर ठंडी हो गइ गइ ।।‛ और िायद आसणलए आतनी ईचाइयों पर होने के बाद भी लोग ईन्हें णसफण जानते हैं, पहचानते नहीं, क्योंणक सब ईनके मन को नहीं नाम को पहचानते हैं । आस बात की ऄणभव्यणि िे ऄपनी कणिता नाम-ऄनाम में करती हैं । यही कारण है िो णफर से ऄनाम होकर जीिन जीना चाहती हैं, बंधी-बंधाइ जीिन से परे स्िच्छंद होकर जीना चाहती हैं, एक ससा जीिन णजसमें नामों की पहचान भले न हो लेणकन सबका ररश्ता एक-दसू रे के ददण से जरूर जड़ु ा हो । या, यू कह सकते हैं णक गमु नाम रास्तों पर पहचान की तलाि करना चाहतीं हैं –- ससं ार के काम अने की आच्छा भी िही रख सकता है जो संिदे निील हो, णजसमें संिदे नाएं बची हो ऄथाणत जो ऄभी भी मनष्ु य रूप में जीणित हो, णजसमें मनष्ु यता समय की मार खाकर भी बची हो लेणकन मख ु र होने के बाद भी ऄगर िह संिदे नाएं सप्तु हो तो कहीं न कहीं आस बात की ओर संकेत करता है णक हमारी गणत हमें णकस ओर ले जा रही । ये मनःणस्थणतया स्पष्ट करती है णक अधणु नक-ईत्तरअधणु नक होने की ओर हम क्या खोते जा रहें है, हम धन के व्यापार में तो तेज होते जा रहें हैं लेणकन मन के व्यापार में णपछड़ते जा रहें हैं . कणिता ‘तमु कौन’ में किणयत्री ने ‘णनर्ेध के प्रतीक के रूप में पेड़ का जो णबम्ब रचा है िह णनःसंदहे ऄत्यंत प्रभाििाली’ है । जीिन में णनर्ेध को किणयत्री सूखपे न का प्रतीक मानतीं हैं, णजसके होने से जीिन नीरस सा हो जाता है, ईसमें एकाकीपन अ जाता है । जीिन में मौन-णिराम-णनरािा किणयत्री को स्िीकार नहीं, जो हर एक कदम को अगे बढ़ने से रोके िह णनर्ेध ईन्हें कतइ ही स्िीकार नहीं – ‚काि ! / मैं ऄनाम होकर ‚बरसात की साकी से भरी हररयाली की िराब खो जाउं / ईन गमु नाम रास्तों में पी-पीकर झमू ने िाले / मस्त तरूओ ं की भीड़ में लम्बी गणलयों में / गहरे -घनेरे जगं लों में ओ तरू / णनर ्ेध का सख ु ा ईपदेि सनु ाते जहां मैं रास्ते पहचान लू / सब मझु े जाने-पहचाने तमु कौन !!‛ मेरे नाम को नहीं / बस मझु े और मैं भी / सबको जानू सबके ददों को पहचानु / भले नामों को नहीं !!‛ एक तरफ तो किणयत्री चाहती हैं णक ईनका ररश्ता णजससे भी जड़ु े णसफण नाम के सहारे न जड़ु े बणल्क भािनाओ ं के सहारे जड़ु े तो दसू री तरफ कहती हैं णक चाहते हुए भी मैं आस संसार के साथ जड़ु नहीं पा रही ह क्योंणक भािनाओ ं का मख ु र पंछी तो सो गया है, कहने का ऄथण यही है णक संिदे नाएं तो है लेणकन सप्तु ािस्था में । आस संघर्णमय जीिन में मन में हजार णचंताएं और िेदनाएं जलती रहती हैं जो खि ु रहने तो नहीं ही देती लेणकन दख ु ी होकर रोने भी नहीं देती । यही कारण है णक सक ल्प ले न े के बािज द रास्ते नहीं णमल पा रहे हैं और चाहकर भी णकसी के काम नहीं अ ू ं पा रहीं हैं – ऄतं तः ईनकी कणिता ‘णिकायत नहीं है आन्हें’ की चचाण करना भी ऄणनिायण है । यह कणिता संग्रह की ऄन्य कणिताओ ं की भांणत किणयत्री के ऄतं भाणि से सम्बंणधत न होकर छोटानागपरु और िहा के लोगों के जीिन से सम्बंणधत है । अज के आस गणत्तिील और अत्ममग्ु ध यगु में लोगों के पास आतना समय ही नहीं है णक िह णकसी और की पररणस्थणतयों के णिर्य में कुछ सोच सके और ईसके णलए कुछ कर सके । आसणलए िहा के लोगों की परे िाणनया सनु ने िाला भी कोइ नहीं . कुल णमलाकर कहा जा सकता है णक रमणणका गप्तु ा की कणिताये णदलचस्प भले न हो लेणकन ईबाउ नहीं है । एक ससे समय में णजसमें कणिता ही नहीं मनष्ु य संिदे नाए और ऄहसास भी पराए से लगने लगे हैं, मनष्ु य जीिन यांणत्रक और संिदे नहीन सा हो गया है, रमणणका गप्तु ा की कणितायें मनष्ु य होने का ऄहसास कराती है, जीिन के सल ु झे-ऄनसल ु झे गीतों को ऄणभव्यि करती हैं । कणिता में णसफण ऄच्छी और बड़ी बातें होने से ही ईसका महत्ि नहीं बढ़ता बणल्क ईसका महत्त्ि तो आस बात पर णनभणर करता है णक िह सामान्य जन-जीिन की भािनाओ ं से णकतना ऄणधक जड़ु पा रहा है और यह भािनात्मक जन-जड़ु ाि रमणणका गप्तु ा की कणिताओ ं में नीणहत है ।। ‚अज मेरी भािना के / मख ु र पंछी सो गए हैं अज भी यह साध मन में / णिश्व के मैं काम अउ िोधाथी ( कलकत्ता णिश्वणिद्यालय) M - 9836591599 िेर् ऄपनी ऄणस्थयों को / सृजन-पथ पर िार अउ Vol.2, issue 14, April 2016. वर्ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016. Vol.2, issue 14, April 2016. वर्ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016.