जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिका / Jankriti International Magazine( बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक)
ISSN 2454-2725
जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिक
( बाबा साहब डॉ. भीमराव
जीिंत है, यह प्रकाणित है, और यही तो अनंद का स्िरुप है जो णक आच्छािणि का पु ंज भी है और जीिन की मंणजल भी । यह बात सच है णक मन को बंधन में नहीं बाधा जा सकता, िही हमें संचाणलत और प्रेररत करता है लेणकन जीिन को भौणतक िस्तुओं के प्रणत गुलाम भी तो मन ही बनाता है, ऄगर ईसमें समथण बनाने की क्षमता है तो ऄसमथण भी तो िही बनाता है, आस बात से भी आनकार नहीं णकया जा सकता –
‚ स मेरे मन / तू मंणजल है जीिन तो एक कदम है सृजन और णिनाि की ओर धरती-अकाि / पाताल की ओर स मेरे मम / तू क्लांत न हो तू प्रकाि है / मेरी आच्छािणि का पु ंज है!!‛
जब मन में णकसी बात के णनिय-ऄणनिय का द्वंद्व चल रहा होता है तो णकतना भी दृढ़-ज्ञानिान-सुलझा व्यणि ही क्यों न हो ईसके मन के णनणणय का बाज कहीं दुबका सा बैठा रहता है और ससी पररणस्थणतयों में जब समस्याए सुलझने का नाम नहीं लेती है तो समय के सहारे छोड़ देना ही बेहतर हो जाता है । आसी का नाम िायद जीिन है णजसकी पहेणलया सुलझाए नहीं सुलझती । किणयत्री का जीिन भी औरो के जीिन से णभन्न नहीं, आसणलए –
‚ मानस में चल रहा द्वंद्व सुलझ नहीं पा रहीं पहेणलया समय के हाथ में / छोड़ णदया नाि को बहने दो / बहती है णजस ओर भी जीिन की नाि मेरी / पानी की धार में!!‛
आसणलए जीिन जैसे चलाता है िैसे ही चलती हैं, कोणिि करती हैं णक समय के साथ ताल से ताल णमलाकर चल सके भले ही िह राह ऄणनणक्षत ही क्यों न हो –
‚ जीिन की / घणड़यों को समय की ताल पर / गाने का
ऄसफल प्रयास / करती रहती ह
गाती रहती ह / गाती रहती ह बेसुरे गीत / णनःिब्द णनरथणक / गणतहीन!!‛
यह जीिन ससी है णजतनी खुणिया देती ईस सबकु छ हमारे मन के ऄनुसार हो जो णक कभ हो जीिन में हम ऄपने ददण भूल नहीं पातें हैं दर-समय जीिन ऄपनी गणत पर चलता ही रह
‚ मैं / समय की स्लेट पर ऄनणलखे गीत णलखती रही / जो के िल चूणक ईन गीतों में मेरे ही ददण भरे थे / क ईन्हें पढ़ न सका / आसणलए कोइ मुझे ज न मेरे गीतों को / न मेरे ददों को ।।‛
कणिता‘ स्मृणत के सैलाब’ में ऄन्यत्र आसी दद ‚ ददण / चरम पर पहुच स्मृणत बन गया / स्मृणत चरम पर पहुंची / तो ददण बन गइ और जब प्रीत / चरम पर पहुंची... ददण और स्मृणत के तार झनझना ईठे ।।‛
जीिन की तुलना चाद से करती हुइ किणयत्र को स्पष्ट करते हुए यह कहना चाहती है णक जा सकता है । न जाने मन की णकतनी ही आच् सकता है और न समझ ही सकता । हर एक किणयत्री ईस चाद सम्बंध में कहतीं हैं –
‚ पर / कोइ नहीं जानता
Vol. 2, issue 14, April 2016. वर्ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016.
Vol. 2, issue 14, April 2016.