जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिका / Jankriti International Magazine( बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक)
गजों की चौड़ाइ में अ णसमटी सड़क कु जी और बांस-घाट के बीचों-बीच फासला पाटता एक सेतु
एक नया जन्मा णििु ।।‛
ISSN 2454-2725
जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिक
( बाबा साहब डॉ. भीमराव
बणनस्पत भाग कर मरने के ।।‛
णफर िे कहती हैं –
‚ क्या मैं मर रही ह / या मर गइ ह
या णक मैं डर रही ह / सांसें चलती हैं
आस जीिन में कइ पड़ाि होते है, हो सकता है णक मनुष्य का जीिन सौ साल तय हुअ है, यह भी मानकर चल सकते है, और यह भी णक िुरुअत के पचास साल जीिन की सीणढयां चढ़ने का होता है, जीिन की उं चाइयों पर पहुचने का, जीिन में कामयाब होने का, ईल्लास भरने का और णफर पचास साल धीरे-धीरे करके मायूसी से एक- एक सीढ़ी ईतरने का । मनुष्य यह जानता है णक जीिन का ऄंणतम लक्ष्य और ऄंणतम सत्य मृत्यु ही है णफर भी ईसको कभी सच नहीं मानता और ऄपने जीिन में न जाने णकतने लक्ष्यों को तय करके रखता है –
‚ मौत णनयणत है
जानता है अदमी
णनणित भी है मानता है अदमी णफर भी ईसे लक्ष्य हणगणज नहीं मानता है अदमी ।।‛
मृत्यु का अना तो सच है ही लेणकन आसे लक्ष्य तो कभी नहीं बनाया जा सकता क्योंणक ईससे जीिन की संभािनाए, संकल्प, अस्था, हौसले सब थरथराने लगेंगे और हम ऄपने मनुष्य-कतणव्य से भागने लगेंगे और किणयत्री के ऄनुसार जीिन-कतणव्य से भागना तो मौत ही होती है । किणयत्री कहती है णक हम हारने के डर से खेलना तो नहीं छोड़ सकते न, घर णगरने के डर से लोग यणद घर छोड़कर ही भाग जाए तो आससे समस्याए ख़त्म तो नहीं होंगी, समस्याओं के बीच रहकर ही समस्याओं से णनजात पाया जा सकता है, ईससे डरकर भागना तो कायरता की णनिानी है और कायर व्यणि हर-पल मरता है –
‚ भागना तो मौत होगी ईसी में रहते
ईसे बचाने की कोणिि में
दबकर मरना कहीं ऄच्छा है
नजरें भी ऄभी थकी नहीं / तो क्या मैं णज िायद मौत से डरती ह आसणलए णजन्दा ही मर गइ ह!‛
‘ मौत का साया’ नामक कणिता में किणयत्री मेरी ईम्र मेरे जीिन की रफ्तार के साथ ऄब क धु ंअ-धुअ सा णदखने लगा है, सासे भी फू ऄभी भी हथेणलयों में जीिनीिणि बाकी ह णनिान छोड़ जाएंगी लेणकन आस मृत्यु के साए मैं णजन्दा ह’ जीिन और मृत्यु के बीच की स ऄपना िरीर ही ऄपना साथ देना छोड़ देता ह नजरे भी ऄभी थकी नहीं होती हैं लेणकन..... हम मर ही गए होते हैं । सीधे िब्दों में हम परेिाणनयों और डर को यह कणिता ऄणभव्यि
‚ एक तेज ददण ईठता है / णदल की दरार
जो रीढ़ की हड्डी को बेधता / सुन्न क
कं धे को बेजान / झूलता-सा छोड़
माथे और हथेणलयों को / पसीना-पसीन
णनकल जाता है / क्या मैं तब मर रही ह या णक डर रही होती ह?‛
‘ स मेरे मन’, अत्मा और िरीर के ऄन्तर अस-काम-दाम-धन जैसे न जाने णकतनी ही आस जीिन की मजबूररयां हैं लेणकन अत्मा
Vol. 2, issue 14, April 2016. वर्ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016.
Vol. 2, issue 14, April 2016.