Jankriti International Magazine vol1, issue 14, April 2016 | Page 55

जनकृति अंिरराष्ट्रीय पतिका/Jankriti International Magazine ISSN 2454-2725 जनकृति अंिरराष्ट्रीय पतिका/Jankriti International Magazine (बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक) ISSN 2454-2725 (बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक) ही नहीं, ऄणभप्राय में भी नागरता णछपी हुइ है । िह िहरी मध्य िगण के बौणिक समदु ाय की अत्मकें णित दृणष्ट की ईपज है, आसणलए ईसमें ईसी िगण के जीिन की िास्तणिकताओ,ं संिदे नाओ,ं अकांक्षाओ ं और ईम्मीदों की ऄणभव्यणि हो रही है ।‛ यह तो हुइ कणिता के संकट की बात, ‘कणिता मझु े खोजने णफरने लगी है’ में किणयत्री ने कणिता के सक ं ट को ही स्पष्ट णकया है । किणयत्री पहले हर-जगह कणिता की तलाि में थीं, ऄब कणिता ईनकी तलाि करती है, ऄब कणिता भी जान गइ है णक ईसकी बोली बाजार में लगने िाली है, ईसका सम्बंध भािनाओ ं की ऄणभव्यणियों से नहीं रह गया है, िह भी बाजार की ही िस्तु बनकर रह गइ है, ससी पररणस्थणतयों में कणिता को बचाए रखने का णजम्मा सरृदय और संघर्णिील लोगों की हो जाती है णक अनेिाले समय में लोग यह न भल ु जाए णक कणिता लेखन भी एक णिधा हुअ करती थी, यही णचंता आस कणिता में णदखाइ देती है – मैं ह-अज ऄभी ऄब आस िि भी यही है काफी णजन्दा रहने के णलए णकसने देणख है मृत्यु ?‛ लेणकन कहीं-कहीं िे खदु ऄपना ही णिरोध करती णदखती हैं । और ितणमान को णनरथणक- ऄके ला-ऄधरु ा-मात्र एक िब्द-ऄपणू ण कहती हैं, कारण िायद जीिन की बदलती पररणस्थणतया हो सकती हैं या णफर बदलते णिचार -‚क्षण / हर ितणमान के ‚णक सनद रहे यह भी ऄतीत की गोद में पलते हैं / भणिष्य के सपने गढ़ते हैं समय की णगनीज-बक ु में – आसणलए ितणमान ऄके ला ऄधरू ा / ऄथणहीन दजण रहे दस्तािेज मात्र एक िब्द है / णजसको णमलता है बोध याद रहे यह सन्दभण में / ऄपने में पणू ण नहीं है िह !!‛ स्मृणतयों के िैलाब-सा णक कणिता भी है या थी कभी ।।‛ जीिन के कइ पड़ाि होते हैं, ईनमें एक समय ससा भी अता है जब मृत्यु का भय हमेिा सताने लगता है । जी हा, िृिािस्था, णजसमें न चाहते हुए भी मनष्ु य णनःसहाय सा हो जाता है, मन तो कु छ कर गजु रना चाहता है लेणकन िरीर साथ नहीं देता और पल-पल मृत्यु भयभीत करता रहता है । ससी पररणस्थणतयों में भी जो हार मानने को तैयार नहीं ईसकी आच्छािणि का लोहा तो मानना ही चाणहए । कणिता ‘मृत्यबु ोध’ में किणयत्री रमणणका गप्तु ा का यह कहना है णक जीिन की सच्चाइ ित्तणमान में ही नीणहत होती है । एक पड़ाि पर जब ईन्हें मृत्यु का बोध सालने लगा तो ईन्हें लगा णक जीिन जीने के णलए ितणमान का सच ही काफी है तो मृत्यबु ोध क्यों ? िैसे भी जीिन-मृत्यु तो कमों पर णनभणर करता है, कमण ही मनष्ु य के नाम को जीणित रखते हैं और किणयत्री तो हर रोज, हर क्षण ऄपनी कणिताओ-ं कहाणनयों के माध्यम से जी ईठतीं हैं -‚हर रोज हर क्षण कणिता, ‘क्यों मलाल मझु ’े में किणयत्री कहती हैं णक लेखन-सृजन कमण में रत रहते हुए, मैं ऄपने जीिन के तीखे ऄनभु ि की पणू ण ऄणभयणि यणद नहीं कर पाइ, जीिन के कड़िे-मीठे क्षण यणद नहीं ईके र पाइ तो मझु े आस बात का कोइ पछतािा नहीं और न ही होगा । जीिन में ईन्होंने कभी भी हार नहीं मानी और यह ईनके जीिठ-कमणठ व्यणित्ि का ही पररचय है णक पराजय ईन्हें स्िीकार ही नहीं, अगे बढ़ने की आच्छा तो णनरंतर बरकरार है । लड़कर चकनाचरू होना ईन्हें मजं रू है लेणकन हारकर मरना नहीं -‚ललक तो है बरकरार जीने की जो नकारती रही है पराजय जो नकारती रही है हार।।‛ और यह न रुकने िाली णजदं गी, हार न माननेिाली णजदं गी, न थकनेिाली णजदं गी ही जन्म और मृत्यु के बीच णनबाणध रूप से णबना रुके ऄपने कमण णकए जाती है । जीिन की कोइ समय-सीमा तो तय नहीं, कभी यह बहुत लम्बी तो कभी बहुत छोटी ही होती है । जन्म और मृत्यु के बीच एक ‘नया जन्मा णिि’ु सेतु का काम करता है – पैदा होती ह न मैं ‚दस हाथ चौड़ी सड़क ऄपनी कणिता में-कहानी में णमलों-मील लम्बी सड़क गीतों में पैदा हुइ ह न मैं Vol.2, issue 14, April 2016. वर्ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016. Vol.2, issue 14, April 2016. वर्ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016.